Sunday, February 14, 2016

गीत ज्ञान 18 (भाग -3)



अथाष्टादशोऽध्यायः


(मोक्षसंन्यास योग)
 
(भाग-3)
    

हमने देखा कि भगवान् त्याग की महत्ता बताते समय कहते हैं कि नियत कर्मों के त्याग उचित नहीं हैं। साथ ही सांख्ययोग की दृष्टि से उन्होंने सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि में पाँच हेतु भी बताये। अब आगे के प्रकरण में भक्तियोग की बात बताने के लिये वे कहते हैं कि किन-किन वर्णों के लिये कौन-कौन से कर्म नियत किये गये हैं।

    ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
    कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।गी.18.41।।


    अर्थात् हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। यहाँ समझना होगा कि भगवान् ने पूर्व में कहा था कि चारों वर्णों की रचना गुणों एवं कर्मों के विभाव के अनुसार की गयी है - ‘‘गुणकर्मविभागशः (4.13)’’। अब वे कहते हैं - ‘‘स्वभावप्रभवैर्गुणैः’’ अर्थात् चारों वर्णों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं। इस प्रकार चतुर्थ अध्याय में चारों वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, जबकि यहाँ बताते हैं कि इन चारों वर्णों के कर्म क्या-क्या होने चाहिए।


    मन का निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में करना, धर्म पालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराध को क्षमा करना, शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना, यज्ञविधि को अनुभव में लाना और परमात्मा, वेद आदि में आत्मिक भाव रखना, ये सभी ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। 


    शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता तथा युद्ध में पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव, ये सभी क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। खेती करना, गायों की रक्षा करना और व्यापार करना, वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं, जबकि चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म हैं। इन्हें स्वाभाविक कर्म कहने का तात्पर्य यह है कि वैसे तो चेतन जीवात्मा और जड़ प्रकृति का स्वाभाव भिन्न है, किन्तु चेतन जीवात्मा ने जड़ प्रकृति से संबंध मान लिया है। इसी को गुणों का संग कहते हैं, जो जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है - ‘‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गी.13.21)’’। इसी संग के कारण गुणों के तारतम्य से जीव का जन्म विभिन्न वर्णों में होता है। इन स्वाभाविक कर्मों को करने में इन्हें श्रम नहीं करना पड़ता, क्योंकि वे उनके स्वाभाव के अनुसार कर्म हैं। इनमें ही इनकी रुचि होती है। 


    स्वभावज कर्मों के वर्णन का प्रयोजन क्या है? यह बात बताते हुए वे कहते हैंः-


    यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
    स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।गी.18.46।।


    अर्थात् जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्यमात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।


    तात्पर्य यह कि समस्त मानव जाति को ऐसी परमसत्ता का पूजन करना चाहिए। यह स्वभावज कर्म करना ही पूजन है। जिस प्रकार रस्सी में साँप का भ्रम मिटने से साँप का लोप हो जाता है, किन्तु रस्सी तो रहती ही है, ठीक उसी प्रकार अपने कर्मों से एवं पदार्थों से भगवान् की पूजा करने से संसार तो लुप्त हो जाता है, किन्तु भगवान् रह जाते हैं और यही स्वरूप तब ईश्वरमय हो जाता है। यदि ऐसे कर्मों में कोई कमी भी रह जाये, तो वह पाप का भागी नहीं होता, क्योंकि वह स्वाभाविक कार्य है।


    यहाँ एक शंका उत्पन्न होती है कि एक कसाई के घर में उत्पन्न व्यक्ति किस प्रकार अपने स्वभावज कार्य से मुक्ति पायेगा? इसका समाधान यह है कि स्वभावज कर्म का अर्थ अहितकारी कर्म से कभी नहीं है। ये कर्म शास्त्रसम्मत ही होने चाहिए। किसी प्राणि की हत्या शास्त्रनिषिद्ध है, अतः ऐसे कर्म का त्याग ही उचित है। 


    इसके बाद संक्षेप में सांख्ययोग का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम इसके अधिकारी के बारे में बताते हैं कि जिसकी बुद्धि सर्वत्र आसक्तिरहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, जो छोटी-छोटी इच्छाओं से रहित है, वह मनुष्य इसका अधिकारी कहलाता है। ऐसा अधिकारी ही बह्म को प्राप्त करता है। यह किस प्रकार बह्म की प्राप्ति करता है, इसके बारे में वे अगले तीन श्लोकों में इसे बताते हैं।


    जो विशुद्ध सात्त्विकी बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त का सेवन करने वाला और नियमित भोजन करने वाला, धैर्यपूर्वक रहित होकर इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर-वाणी-मन को वश में करके, शब्द आदि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर, ममता रहित तथा शान्त होकर निरन्तर ध्यानयोग के परायण हो जाता है, वह अहंकार, दर्प, बल, काम, क्रोध और परिग्रह से ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है। ऐसा साधक पूर्णतः मुझे प्राप्त हो जाता है अर्थात् ब्रह्म में लीन हो जाता है। ऐसे भक्त मुझे जानकर इस पराभक्ति के द्वारा मुझमें प्रविष्ट हो जाते हैं। 


    इसके बाद शरणागति की प्रधानता वाले भक्तियोग के संदर्भ में भगवान् कहते हैं कि मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सभी कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत, अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य यह कि जहाँ ज्ञानयोगी के लिये सब विषयों का त्याग करना, निरन्तर ध्यान करना और अहंता, ममता, काम, क्रोध आदि का त्याग आवश्यक होता है, वहीं भक्तियोग में अपने स्वभावज कर्मों को करते हुए यदि वह भगवान् का आश्रय लेता है, तो उसे परमपद की प्राप्ति होती है। इसमें भक्तों को सुगमता होती है, क्योंकि उसे मात्र स्वयं को ईश्वर के आश्रय में रख देना होता है। 


    इस प्रकार भक्तियोग की महत्ता बताकर भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम अपने समस्त कर्मों को मन से मुझे अर्पित कर दे, स्वयं को मेरे अर्पित कर दे, समता का आश्रय लेकर इस संसार से संबंध-विच्छेद कर ले और मेरे परायण होकर मेरे में चित्त लगा। अर्थात् तू यह मान ले कि मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि और संसार के व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सब भगवान् के ही हैं। इनमें कोई भी वस्तु किसी की व्यक्तिगत नहीं है। इन वस्तुओ के सदुपयोग के लिये ईश्वर ने मात्र अधिकार दिया है। इस दिये हुए अधिकार को भी ईश्वर को अर्पित कर दे। 


    विशेष बात यह है कि चित्त से सब कर्म भगवान् को अर्पण करने से नित्य-वियोग हो जाता है और भगवान् के परायण होने से नित्य-योग हो जाता है। नित्य-योग में योग, नित्य-योग में वियोग, वियोग में नित्य-योग एवं वियोग में वियोग - ये चार अवस्थायें चित्त की वृत्तियों को लेकर होती हैं। इन्हें कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है। यथा, श्रीकृष्ण एवं श्रीराधा का मिलन - ‘नित्य-योग में योग’ है। मिलन होने पर भी जब हृदय में बात उठती है कि ‘‘तुम कहाँ चले गये?’’ तो ‘नित्य-योग में वियोग’ होता है। श्यामसुन्दर सामने नहीं हैं, किन्तु मन को ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रत्यक्ष हैं, तो यह ‘वियोग में नित्य-योग’ है। श्यामसुन्दर थोड़े समय के लिये सामने नहीं आये, तो मन में भाव उठते हैं कि अब क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? उनसे कैसे मिलूँ? तो यह ‘वियोग में वियोग’ है। वास्तव में इन चारों अवस्थाओं में भगवान् के साथ नित्य-योग बना रहता है। वियोग तो कभी होता ही नहीं है। यह ‘नित्य-योग’ ही ‘प्रेम’ है। इस प्रेम में चार प्रकार का रस अथवा रति होती है - दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इन रसों में दास्य से साख्य, साख्य से वात्सल्य और वात्सल्य से माधुर्य रस श्रेष्ठ है, क्योंकि इनमें ईश्वर के ऐश्वर्य की विस्मृति क्रमशः अधिक होती चली जाती है। किन्तु इनमें से कोई एक रस भी यदि पूर्णता में पहुँच जाता है, तो अन्य रसों की स्वयमेव पूर्ति हो जाती है। इन रसों को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है।


    दास्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति यह भाव होता है कि वे उनके स्वामी हैं और वे सेवक। उनका पूर्ण अधिकार होता है कि चाहे उनसे कोई भी कार्य करवा लें। मेरे से अत्यधिक प्रेम रखने के कारण ही वे बिना मेरी सम्मति के ही सब-कुछ विधान करते हैं।


    सख्य रति में भक्त का भगवान् के प्रति सखा भाव रहता है। वो सोचते हैं कि वे मुझे प्रेम करते हैं और मैं उन्हें प्रेम करता हूँ। उनका मेरे ऊपर पूरा अधिकार है, तो मेरा भी उन पर पूरा अधिकार है। अतः मैं जो कहूँ उन्हें मानना होगा।


    वात्सल्य रति में भक्त मानता है कि वह ईश्वर का माता-पिता अथवा गुरु है। उसे उनकी रक्षा करनी है। उनका ध्यान रखना है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार नन्द और यशोदा श्रीकृष्ण का घ्यान रखते थे कि उन्हें कुछ नुकसान न हो जाये।


    माधुर्य रति में भक्त को भगवान् के ऐश्वर्य की विस्मृति होती है। उन्हें प्रतीत होता है कि ईश्वर की सुख-सुविधायें जुटाना उनका कार्य है। इसमें भगवान् के साथ अभिन्नता होती है। 

       
    तात्पर्य यह है कि शाश्वत पद की प्राप्ति के लिये साधक को दो ही विशेष कार्य करने हैं - संसार के सम्बन्ध का त्याग और भगवान् के साथ प्रेम का सम्बन्ध। भक्त का कार्य भगवान् का आश्रय लेना है, भगवान् का ही चिंतन करना है। तब भगवान् भक्त पर विशेष कृपा करके उसके साधन की समस्त विघ्न-बाधाओं को दूर कर देते हैं और स्वयं की प्राप्ति भी करा देते हैं। कोई यदि अहंकारवश स्वयं को कर्ता मान लेता है, तो वह परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। अतः वे अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! अहंकारवश ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ ऐसा विचार मिथ्या है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रियत्व तुम्हें हठात् ही युद्ध में लगा देगा। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार मनुष्य गंगा जी के प्रवाह को रोक नहीं सकता, किन्तु उसे घुमा सकता है, ठीक उसी प्रकार अपने स्वभाव के कर्म को छोड़ नहीं सकता, किन्तु ईश्वर भक्ति के द्वारा उन्हें निर्मल बना सकता है।


    यह स्वभाव हो तरह का होता है - विहित कर्मों का स्वभाव एवं निषिद्ध कर्मों का स्वभाव। इनमें विकहत कर्मों का स्वभाव तो स्वतः होने से ‘स्व-स्वभाव’ है, जबकि निषिद्ध कर्मों का स्वभावा आगन्तुक होने ‘पर-स्वभाव’ है। ‘स्व-स्वभाव’ सजातीय होने से ‘जन्य’ नहीं है, जबकि ‘पर-स्वभाव’ विजातीय होने से जन्य है। मानव का कर्तव्य है कि वह निषिद्ध कर्मों के स्वभाव का त्याग करके विहित कर्मों के स्वभाव के अुनसार कार्य करे। 


    अतः अर्जुन को वे बताते हुए कहते हैं कि ईश्वर सभी प्रणियों के अंदर ही शोभा पाता है। वह अपनी मायाशक्ति से घुमा रहा है। अतः उस परमात्मा की शरण में जाओ। उसकी कृपा से ही तुम परमशक्ति तथा परमधाम को प्राप्त करोगे। इतना कह कर भगवान् कहते हैं कि जो भी गोपनीय बातें थीं, मैंने तुम्हें बता दीं। अब तुम स्वयं इस पर विचार करो कि तुम्हें क्या करना है। फिर भी इस बात से इंकार नहीं कि मैं परम हितकर वच नही तुमसे कहूँगा, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो। अतः मुझ परमेश्वर की शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगा। तुम शोक मत करो।

विश्वजीत ‘सपन’
क्रमशः