Friday, December 28, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 64)



महाभारत की कथा की 89वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 
राजधर्म का महत्त्व
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    पूर्व काल की बात है। मन्धाता नामक एक राजा था। वह बड़ा गुणवान् और तपस्वी था। श्री नारायण के दर्शन की उसे अभिलाषा थी। वह संन्यास ग्रहण करना चाहता था। इसी उद्देश्य को लेकर उसने एक यज्ञ किया। यज्ञ समाप्त कर उसने भगवान् विष्णु के दर्शन की इच्छा से अपना ध्यान उनमें लगा दिया। तब भगवान् प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र का रूप धारण कर उसे दर्शन दिये। मन्धाता ने इन्द्ररूपी विष्णु का विधिवत पूजन किया तब इन्द्र बोले - ‘‘राजन्! तुमने बड़ी श्रद्धा एवं निष्ठा से यज्ञ किया और हमारा पूजन भी। तुम मानव-जाति के राजा हो। अवश्य तुम्हारी मनोकामनायें होंगी। मैं तुम पर बड़ा प्रसन्न हूँ। माँगो, जो भी वर माँगना चाहते हो, मैं उसे अवश्य पूरा करूँगा।’’


    मन्धाता की जैसे सभी इच्छायें पूर्ण हो गयीं। उसे तो भगवान् विष्णु का दर्शन करना था तथा संन्यास ग्रहण करना था। उसने कहा - ‘‘भगवन्! अब आपसे क्या छुपाना। मैं सिर झुकाकर आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि मुझे भगवान् विष्णु के दर्शन करा दें। मुझे अब भोगों से कुछ भी लगाव न रहा। मैं अब वन गमन करता चाहता हूँ। मेरी प्रवृत्ति आदिदेव श्रीविष्णु में हो गयी है। अब उनके अनुसार ही चलना चाहता हूँ। बस इतनी कृपा कर दीजिये।’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! तुम तो राजधर्म त्यागने की बात कर रहे हो, जबकि राजधर्म तो स्वयं श्रीविष्णु से ही प्रवृत्त हुआ है। दूसरे सभी धर्म तो उसी के अंग हैं। असल में सभी धर्मों का अन्तर्भाव क्षात्रधर्म में ही हो जाता है। श्रीविष्णु ने क्षात्रधर्म के द्वारा ही शत्रुओं का दमन करके देवताओं एवं ऋषियों की रक्षा की थी। यदि वे ऐसा न करते तो ब्राह्मणों का नाश होने से पृथ्वी पर चारों वर्णों का लोप हो जाता। संसार में इन धर्मों का अनेक बार लोप हुआ है तथा इसी क्षात्रधर्म के द्वारा इनका उत्थान होता आया है। 


    राजन्! तुम जैसे लोक-हितैषी पुरुषों को सर्वथा क्षात्रधर्म का पालन करना चाहिये, अन्यथा प्रजा नष्ट हो जायेगी, कर्तव्य-विहीन हो जायेगी। राजा अपनी प्रजा का पुत्रों के समान देखभाल करता है, अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी कारण समस्त प्राणी निर्भय होकर रहते हैं। इस संसार में क्षात्रधर्म ही श्रेष्ठ है, यह सब जीवों का उपकार करने वाला तथा मोक्ष का साधन है। एक राजा का कर्तव्य अपने राजधर्म का पालन करना ही होता है।’’


    मन्धाता को बात में समझ आ गयी। उसने निर्णय लिया कि वह अपने कर्तव्यों से विमुख न होगा। अब उसे अपने कर्तव्य को करने में जो शंकायें थीं, उनका निदान जानना चाहता था। उसने अपनी शंका का समाधान करने के लिये पूछा - ‘‘देवराज! मेरे राज्य में अनेक जातियों के लोग हैं। उन्हें अपने धर्मों का पालन करने के लिये क्या-क्या करना चाहिये?’’ 


इन्द्र ने कहा - ‘‘प्रजापति ने सब प्रकार के मनुष्यों के लिये, सभी जातियों एवं वर्णों के लिये कर्तव्य पूर्व से ही निश्चित कर दिये हैं, उन सभी को उसी प्रकार आचरण करना चाहिये। उन्हें कभी भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिये।’’


मन्धाता ने पूछा - ‘‘देवराज! अनेक लोग हैं जो लूट-पाट करते हैं, उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘जो लोग लूट-पाट करके जीविका चलाते हैं, उनसे माता-पिता, गुरुओं, आश्रमवासियों आदि की सेवा करवानी चाहिये। उनसे धर्म-कर्म एवं पितृश्राद्ध कराने चाहिये, आश्रम आदि बनवाने चाहिये। उन्हें उचित मार्ग पर लाने के प्रयास करने चाहिये।’’


    मन्धाता ने कहा - ‘‘देवेश! मानव-समाज में दस्यु सभी वर्णों एवं आश्रमों में पाये जाते हैं। वे छुपे रहते हैं। उनके लिये क्या उपाय हैं?’’


    इन्द्र ने कहा - ‘‘राजन्! जब दण्डनीति नष्ट हो जाती है, तब सभी प्राणी कर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं। राजा लोगों का कर्तव्य है कि वे दण्डनीति द्वारा पापियों को रोकें तथा उन्हें उचित मार्ग पर लायें। इसी कारण राजा का दायित्व सबसे महान् होता है। इसी कारण वे लोक में सम्मान पाते हैं। इस प्रकार तुम वन जाने का विचार त्याग दो तथा क्षात्रधर्म में अपना मन लगाओ। यही तुम्हारे लिये सबसे बड़ा कल्याणकारी मार्ग है।’’


    इस इन्द्ररूपी भगवान् विष्णु ने मन्धाता को क्षात्रधर्म पालन करने का उपदेश दिया तथा वे अपने धाम चले गये। राजा मन्धाता पर इस उपदेश का बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने पूरी निष्ठा से क्षात्रधर्म का पालन किया तथा वह एक प्रजापालक राजा के रूप में विख्यात हुआ।


    शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन तीनों आश्रमों के धर्मों का गृहस्थ धर्म में अन्तर्भाव हो जाता है तथा क्षत्रिय के धर्म तीनों वर्णों के आश्रय हैं, क्योंकि समस्त लोक तथा पुण्यकर्मों का आधार राजधर्म ही है।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, December 20, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 63)




महाभारत की कथा की 88वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
(शान्तिपर्व)


दण्डनीति का उद्भव एवं विकास

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    प्राचीन काल की बात है। वह सत्ययुग था। सत्ययुग के प्रारंभ में राज्य अथवा राजा नहीं होते थे, क्योंकि तब कोई अपराध ही नहीं होते थे। एक समय आया जब प्रजा मोह में पड़ गयी। तब उनका विवेक भी भ्रष्ट हो गया। वे कर्तव्य एवं अकर्तव्य का विभेद करने में अक्षम हो गये। धर्म का पतन हो जाने से वेद भी लुप्त होने लगे। समस्त संसार में भय का वातावरण उत्पन्न हो गया। ऐसी स्थिति को देखकर देवतागण को बड़ा कष्ट हुआ। वे ब्रह्मा के पास गये और उनसे कहा - ‘‘भगवन्! मनुष्य लोक में पतन का द्वार खुल गया है। वेद आदि नष्ट होते जा रहे हैं। अधर्म का बोलबाला होता जा रहा है। धर्म संकट में है। ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा कैसे हो? आप ही कुछ उपाय कीजिये, अन्यथा सब-कुछ नष्ट हो जायेगा।’’


    ब्रह्मा ने कहा - ‘‘देवगण! आप भयभीत न हों। यह समय का चक्र है। यह घूमता ही रहता है। आप लोग थोड़ी देर रुकें, मैं कुछ न कुछ उपाय करता हूँ।’’


    उसके उपरान्त ब्रह्मा ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों का एक नीतिशास्त्र रचा। उसमें धर्म, अर्थ एवं काम का वर्णन था, अतः उसका नाम ‘‘त्रिवर्ग’’ रखा गया। इस शास्त्र में साम, दाम, दण्ड, भेद एवं उपेक्षा का वर्णन सविस्तार किया गया। इस नीतिशास्त्र में वह सब-कुछ था, जो एक प्रजापालन में सम्मिलित होना चाहिये। 


    नीतिशास्त्र की रचना करने के उपरान्त ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘देवगण, यह दण्डनीति तीनों लोकों में व्याप्त है। इसी से राज्यव्यवस्था चलती है। इसी से पृथ्वी की कल्याण संभव है। आपलोग इसको ग्रहण करें।’’


    किन्तु वह शास्त्र बड़ा विशाल था। उसका अध्ययन भी कठिन था। देवगण पुनः कठिनाई में थे। उनकी चिंता देखकर भगवान् शंकर ने सर्वप्रथम उस शास्त्र को ग्रहण किया तथा जीवों की घटती आयु को देखते हुए उसे संक्षिप्त किया। तब वह ग्रन्थ ‘वैशालाक्ष’ कहलाया। इसमें दस हज़ार अध्याय थे। पुनः इसे इन्द्र ने ग्रहण किया एवं संक्षिप्त किया। तब इसमें पाँच हज़ार अध्याय रहे गये तथा यह ‘बाहुदन्तक’ कहलाया। तब बृहस्पति जी ने तीन हज़ार अध्यायों तक इसे संक्षिप्त किया तथा वह ‘बार्हस्पत्य’ कहलाया। इसके बाद योगाचार्य गुरु शुक्राचार्य ने इसे संक्षिप्त कर मात्र एक हज़ार अध्यायों का कर दिया। पुनः मनुष्यों की आयु को ध्यान में रखते हुए महर्षियों ने एक छोटा-सा ग्रन्थ बना दिया, जो मनुष्य हेतु प्राप्य एवं प्रजापलन में सहायक हो। यही शास्त्र दण्डनीति कहलाया।


    इसके पश्चात् मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से राजा अंग के द्वारा वेन का जन्म हुआ। वह दुराचारी ही रहा। वह राग-द्वेष के अधीन अधर्म करने लगा। तब वेदवादी मुनियों ने उसे अभिमन्त्रित कुशाओं से मार डाला। उसके मरते ही कोई प्रजापालक न रहा। इससे और भी अधिक समस्या उपस्थित हो गयी। इस स्थिति को देखते हुए मुनियों ने वेन के दाहिने हाथ का मंथन किया। उससे इन्द्र के समान तेज वाला वेनपुत्र उत्पन्न हुआ। वह वेद-वेदांगों का ज्ञाता था तथा सभी विद्याओं में पारंगत था। उसका नाम पृथु रखा गया।


    पृथु ने मुनियों से कहा - ‘‘मुनिगण, मुझे धर्म एवं अर्थ के निर्णय की सूक्ष्म बुद्धि है। आपने मुझे जन्म दिया, तो अवश्य ही कोई विशेष कार्य होगा। मुझे बताइये कि मुझे अब क्या करना चाहिये?’’


    मुनियों ने कहा - ‘‘तुम्हें धर्म का पालन करना है और उसे धरती पर पुनः स्थापित करना है। जिस कार्य में धर्म की स्थिति जान पड़े उसे निःशंक करो। सभी जीवों के प्रति समान भाव रखो। जो मनुष्य धर्म से विलग होता दिखाई दे, उसका दमन करो।’’


    पृथु ने कहा - ‘‘मुनिगण, ब्राह्मण तो सर्वदा वन्दनीय हैं, अतः उन्हें छोड़कर मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।’’


    मुनियों ने मान लिया और पृथु ने अपना कार्य आरम्भ कर दिया। तब पृथ्वी बड़ी ऊँची-नीची थी। पृथु ने पत्थर, मिट्टी आदि डलवाकर उसे समतल किया। सभी देवताओं ने मिलकर पृथु का अभिषेक किया। स्वयं पृथ्वी उनकी सभा में उपस्थित हुई थी। पृथु के संकल्प से करोड़ों हाथी, घोड़े, रथ, पैदल आदि उत्पन्न हो गये। सभी जीवों का भय समाप्त हो गया। वे प्रसन्न होकर अपना जीवन जीने लगे। पृथु ने दण्डनीति का सुन्दर अनुपालन किया और धरती को स्वर्ग बना दिया। उन्होंने समस्त प्रजा का ‘रंजन’ किया एवं इसी कारण उन्हें प्रथम ‘राजा’ होने का गौरव प्राप्त हुआ। ब्राह्मणों का क्षति से त्राण किया, इस कारण वे ‘क्षत्रिय’ कहलाये। उन्होंने धर्मानुसार भूमि को प्रथित (पालित) किया और इसी कारण धरती का नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा। 


    उनके शरीर में स्वयं भगवान् विष्णु का आवेश था, अतः सारा संसार उन्हें देवता की भाँति मानकर उनका सम्मान करता था। उन्होंने पहली बार पृथ्वी पर दण्डनीति का पालन किया और समस्त संसार को भयमुक्त किया।


    कहते हैं कि सभी राजा को गुप्तचरों द्वारा दृष्टि रखते हुए दण्डनीति का पालन करना चाहिये। राजा के दण्ड का बड़ा महत्त्व होता है, क्योंकि उसी के कारण समस्त राष्ट्र में नीति एवं न्याय का आचरण होता है। 


विश्वजीत 'सपन'

Monday, December 10, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 62)




महाभारत की कथा की 87वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 
परशुराम का जीवन-चरित
 

प्राचीन काल में जह्नु नामक एक राजा हुए। उनके पुत्र का नाम था अज। अज से बलाकाश्व का जन्म हुआ। बलाकाश्व के पुत्र कुशिक बड़े धर्मज्ञ हुए। उन्होंने पुत्र-प्राप्ति हेतु कठोर तपस्या की। तब स्वयं इन्द्र ही उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए एवं उनका नाम पड़ा गाधि। गाधि के कोई पुत्र न था, एक पुत्री हुई, जिसका नाम था सत्यवती। सत्यवती शुद्ध आचरण वाली तपस्विनी स्त्री थी। उसके इस प्रकार के व्यवहार को देखते हुए गाधि ने उसका विवाह मुनि ऋचीक से कर दिया।


मुनि ऋचीक को पता था कि गाधि एवं सत्यवती दोनों को पुत्र प्राप्ति की इच्छा थी। इसको ध्यान में रखते हुए एक दिन उन्होंने राजा गाधि एवं सत्यवती को संतान देने के लिये चरु तैयार किये। सत्यवती को बुलाकर चरु देते हुए उन्होंने कहा - ‘‘देवि! यह दो प्रकार का चरु है। इसमें से यह तुम ले लेना और दूसरा अपनी माँ को दे देना। तुम्हारी माता को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी, जो बड़े-बड़े क्षत्रियों का संहार करेगा। तुम्हें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण बालक की प्राप्ति होगी, जो तपस्वी एवं धैर्यवान् होगा।’’


ऋचीक मुनि ऐसा कहकर वन को चले गये। तभी तीर्थयात्रा को निकले गाधि अपनी पत्नी सहित ऋचीक के आश्रम पर आये। सत्यवती ने अपनी माता को चरु के बारे में बताया, किन्तु भूलवश चरु बदल गये और उन दोनों के एक-दूसरे के लिये दिये चरु को खा लिया। कुछ समय उपरान्त दोनों को गर्भ ठहर गया। सत्यवती के गर्भ को देखते ही ऋचीक ने पहचान लिया कि चरु खाने में भूल हुई है, वे अपनी पत्नी से बोले - ‘‘यह तो अनुचित हुआ प्रिये, मैंने तुम्हारे चरु में ब्राह्मण का तेज स्थापित किया था, किन्तु अब तुम्हारा पुत्र क्षत्रिय उत्पन्न होगा।’’
 

सत्यवती बोली - ‘‘भगवन्! ऐसा न कहिये। मुझे तो ब्राह्मण पुत्र ही चाहिये।’’

ऋचीक ने कहा - ‘‘मैंने ऐसा संकल्प नहीं किया था, किन्तु चरु के बदल जाने से ऐसा ही होगा।’’


सत्यवती बोली - ‘‘मुनिवर! आप तो इच्छा करते ही सृष्टि रच सकते हैं। कोई उपाय कर मुझे शान्त पुत्र ही दीजिये, चाहे मेरा पौत्र उग्र स्वभाव का क्यों न हो।’’


ऋचीक ने कहा - ‘‘तो फिर ठीक है, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही होगा। मैं ऐसा ही वरदान तुम्हें देता हूँ।’’


उसके बाद ऋचीक मुनि के ऐसा संकल्प करने से सत्यवती ने जमदग्नि मुनि को जन्म दिया और राजा गाधि के यहाँ विश्वामित्र पैदा हुए।


विश्वामित्र में ब्राह्मण के गुण हुए और उन्होंने चरु के प्रभाव के कारण ही अंततः ब्राह्मणत्व की प्राप्ति भी की थी। उधर जमदग्नि ने पुत्र अर्थात् सत्यवती के पौत्र परशुराम हुए। उनका स्वभाग उग्र था तथा वे सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता हुए।

जब परशुराम बड़े हुए, तब हैहयवंशी क्षत्रियों का स्वामी अर्जुन नामक एक राजा था। अर्जुन राजा कृतवीर्य का पुत्र था। वह बड़ा पराक्रमी था, किन्तु थोड़ा घमण्डी भी था। उसने अश्वमेध यज्ञ से सम्पूर्ण पृथ्वी जीती और उसे ब्राह्मणों को दान में दे दी। उसने दत्तात्रेय की कृपा से सहस्र भुजायें प्राप्त कीं। एक बार अग्नि के भिक्षा माँगने पर उसने अपनी भुजाओं के पराक्रम को बताते हुए उन्हें भिक्षा दी। कुपित अग्नि ने उसके बाणों के अग्रभाग से निकलकर अनेक गाँवों, नगरों आदि का जला दिया। इस आग ने आपव मुनि का आश्रम भी जला दिया। तब कुपित होकर आपव मुनि ने उसे शाप देते हुए कहा - ‘‘तुम्हें जिन भुजाओं पर घमण्ड है, उसका नाश होगा, उन्हें संग्राम में परशुराम जी काट डालेंगे।’’


अर्जुन के पुत्र बड़े बली थे, किन्तु मूर्ख भी थे। वे घमण्डी एवं क्रूर भी थे। एक दिन वे जमदग्नि के आश्रम के पास से निकल रहे थे। उन्होंने उनकी गाय के बछड़े को चुरा लिया। उस बछड़े के लिये बड़ा भयंकर युद्ध हुआ और उस युद्ध में परशुराम ने अर्जुन की भुजाओं को काट दिया। फिर वे बछड़े को लेकर अपने आश्रम चले गये। 


अर्जुन के पुत्र भी चुप रहने वालों में से न थे। एक दिन अवसर पाकर जब परशुराम आश्रम में न थे तथा कुश एवं समिधा लाने वन गये हुए थे, तब अर्जुन के पुत्रों ने जगदग्नि का सिर काटकर उनका वध कर दिया। पिता के वध से क्रोधित होकर परशुराम ने क्षत्रियों के विनाश का संकल्प लिया और अस्त्र उठा लिये। सर्वप्रथम उन्होंने हैहयवंशियों पर आक्रमण किया एवं उन्हें समूल नष्ट कर दिया। इसके बाद भी कुछ क्षत्रिय बच गये थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना पराक्रम बढ़ाया। जैसे ही परशुराम जी को यह पता चला तो उन्होंने पुनः शस्त्र उठाये एवं क्षत्रियों के बालकों तक को मार दिया। अब क्षत्रिय मात्र गर्भ में ही बचे थे। वे बच्चे भी जब जन्म लेते थे, तो उनका पता लगाकर वे उनका भी वध कर देते थे। इस प्रकार इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार करके उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया तथा सम्पूर्ण पृथ्वी को कश्यप जी को दान में दे दी। तब क्षत्रियों की रक्षा करने के उद्देश्य से कश्यप ने परशुराम से कहा - ‘‘परशुराम, तुमने अपना कार्य सम्पन्न कर लिया। तुम अब दक्षिण समुद्र के किनारे चले जाओ और मेरे राज्य में कभी निवास न करना।’’

परशुराम वहाँ से चले गये और समुद्र ने उनके लिये स्थान खाली किया, जो शूर्पारक देश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे अपरान्त भूमि भी कहते हैं।


विश्वजीत ‘सपन’

Tuesday, December 4, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 61)


महाभारत की कथा की 86वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मानव धर्म का रहस्य
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प्राचीन काल की बात है। विदेहराज जनक को शोक हुआ। वे इससे मुक्ति पाना चाहते थे। तब उन्होंने विप्रवर अश्मा से पूछा - ‘‘हे विप्रवर! मुझे शोक हुआ है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि ऐसे में क्या करना चाहिये। कृपा कर अपना कल्याण करने वाले मानव का व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसका ज्ञान मुझे दीजिये?’’


अश्मा महान् ज्ञानी एवं तत्त्ववेत्ता थे। वे राजा की दुविधा को समझ रहे थे। उन्होंने कहा - ‘‘राजन्! मानव जीवन को भली-भाँति समझना आवश्यक होता है। इस बात को मन में अच्छी तरह से बिठा लें कि जन्म लेते ही प्रत्येक मानव दुःख एवं सुख का अनुभव करने लगता है। इसी कारण उसका ज्ञान अंधकार में छुप जाता है। जिस प्रकार वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, ठीक उसी प्रकार ये सुख-दुःख भी मानव के ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। असल में सुख एवं दुःख प्रारब्ध के अनुसार आते ही हैं और आयेंगे ही। इनसे मुक्ति संभव नहीं है। विधाता की करनी बड़ी विचित्र है। भूख-प्यास, रोग, आपत्ति, ज्वर, मृत्यु आदि सब के सब जीव के जन्म के समय ही निश्चित हो जाते हैं। नियम के अनुसार समस्त प्राणियों को इनसे होकर ही जाना पड़ता है। इस प्रकार काल के प्रभाव से जीवों का सम्बन्ध इष्ट एवं अनिष्ट दोनों से होता है। यही जीवन है तथा जीवन का यही ज्ञान वास्तविक ज्ञान कहलाता है।’’


जनक ने पूछा - ‘‘हे ब्राह्मण देवता, आपने सही कहा। मुझे यह बताने का कष्ट करें कि क्या मृत्यु पर विजय नहीं पायी जा सकती?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘यह संभव नहीं है राजन्, मृत्यु सभी को आनी है, तब वह चाहे आज हो अथवा कल। मनुष्य जब मृत्यु के निकट होता है अथवा जब वह वृद्धावस्था में जाता है, तब कोई औषधि, मन्त्र, होम अथवा पूजा उसे बचा नहीं सकते। मृत्यु का यह लम्बा मार्ग समस्त जीवों को तय करना ही पड़ता है। तपस्वी, दानी एवं बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले भी वृद्धावस्था तथा मृत्यु को पार नहीं कर सकते।’’ 


राजा जनक ने कहा - ‘‘उचित है विप्रवर, कृपया ये भी बतायें कि हमारे संबंधी, नाते-रिश्तेदार आदि के संदर्भ में क्या सत्य है? हमारा मोह उनसे लगा ही रहता है।’’


अश्मा ने कहा - ‘‘राजन्! बड़ा ही सुन्दर प्रश्न किया आपने। इसके उत्तर को समझ लेने वाले को कभी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता है। ये रिश्ते-नातेदार भी उसी प्रकार मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं, जिस प्रकार समुद्र में दो लक्कड़ मिलते एवं बिछुड़ते रहते हैं। इस संसार में माता-पिता, स्त्री, पुत्र, पुत्री आदि किसके हुए हैं? विचार करें, तो इस जीव का न तो कोई सम्बन्धी हुआ है तथा न कभी होगा। याद कीजिये कि आपके बाप-दादा कहाँ चले गये? अब न वे आपको देख सकते हैं और न आप उन्हें। सब के सब एक दिन मिट जाते हैं। स्वर्ग एवं नरक को मनुष्य अपनी आँखों से कभी देख ही नहीं सकता। उन्हें देखने के लिये सत्पुरुष शास्त्ररूपी नेत्रों से काम लेते हैं। अतः इस बात को समझिये कि यह संसार ही अनित्य है एवं चक्र के समान घूमता रहता है। सभी को आना है तथा पुनः जाना है। यही नियम है, अतः जीव को सभी प्रकार के शोकों को भूल जाना चाहिये। उसे स्वयं से पूछना चाहिये कि शोक किसके लिये करना है? मेरा तो कोई है ही नहीं। किसी के प्रति मोह मात्र जीव का भ्रम है।’’


राजा जनक ने पूछा - ‘‘विप्रवर! यदि यह संसार ही भ्रम है, तो ऐसे में एक मानव का स्वभाव क्या होना चाहिये? उसे किस प्रकार का आचरण करना चाहिये?’’


अश्मा ने कहा - ‘‘जिसे अपने कल्याण की चिंता है, उस मनुष्य को शास्त्रों का उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिये। उसे चाहिये कि वह पितरों का श्राद्ध एवं देवताओं के पूजन करे। पहले मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। उसके बाद उसे गृहस्थ आश्रम का पालन करना चाहिये। पितरों एवं देवताओं के ऋण से मुक्त होकर संतान उत्पन्न करना चाहिये तथा यज्ञादि करना चाहिये। उसे हृदय का शोक त्याग कर इहलोक, स्वर्गलोक अथवा परमात्मा की आराधना करनी चाहिये। जो राजा शास्त्र के अनुसार धर्म का आचरण करता है तथा द्रव्य-संग्रह करता है, उसका सम्पूर्ण विश्व में सुयश फैलता है, अतः राजन् तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिये।’’


अश्मा मुनि के इस प्रकार कहने से राजा जनक का शोक दूर हो गया। उन्हें धर्म के रहस्य की प्राप्ति हुई तथा उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी। उनका मनोरथ पूर्ण हुआ और वे प्रसन्नचित्त होकर अपने महल वापस लौट गये। यही जीवन का रहस्य है। यही मानव का धर्म है। जो मानव इस प्रकार अपना जीवन यापन करता है, उसे अंततः अंतिम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, November 25, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 60)




महाभारत की कथा की 85वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

राजा का धर्म
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प्राचीन काल की बात है। मिथिला नगरी में राजा जनक का राज्य था। वे बड़े ही सिद्ध पुरुष थे। उन्हें आत्म-ज्ञान हुआ और वे द्वन्द्वों से बिल्कुल मुक्त हो गये थे। वे जीवन के बारे में हमेशा विचार किया करते थे। समय के साथ उनमें विरक्ति का भाव उत्पन्न हो गया। उन्हें लगा कि जो जीवन वे जी रहे थे, वह वास्तविक जीवन न था। ऐसा विचारकर एक दिन उन्होंने सभी से कहा - ‘‘दूसरों की दृष्टि में मेरे पास अनन्त धन है, राज-पाट है, धन-सम्पदा है। यदि देखा जाये, तो मेरा उसमें कुछ भी नहीं है। यदि समस्त मिथिला जल जाये, तोे मेरा कुछ भी न जलेगा। व्यक्ति अकेला आता है और अकेला ही जाता है। उसके साथ कुछ भी नहीं जाता।’’


इस विरक्ति-भाव के आ जाने पर उन्होंने धन, संतान, स्त्री तथा अग्निहोत्र का भी त्याग कर दिया और एक भिक्षुक की भाँति मुट्ठी भर जौ खाकर रहने लगे। इस प्रकार राजा का व्यवहार देख उनकी रानी को बड़ा कष्ट हुआ। ऐसी प्रवृत्ति से राज्य का भला न होने वाला था, अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पति को राजा के धर्म से अवगत करायें। इस प्रकार उन्होंने अपने पति को समझाना प्रारंभ किया।


कौसल्या बोली - ‘‘राजन्! आपका एक भिक्षुक की भाँति मुट्ठी भर जौ खाकर रहना उचित नहीं है। यह सर्वथा राजधर्म के विरुद्ध है। आपने अपने कर्मों का त्याग किया है, अतः देवता, अतिथि एवं पितरों ने भी आपका परित्याग कर दिया है। मानव-जीवन में कर्म की महत्ता सर्वविदित है। देखिये, आपके रहते हुए भी आपकी माता पुत्रहीना हुई और मैं पतिविहीना। कभी आप समस्त जीवों की भूख मिटाया करते थे, किन्तु अब मुट्ठी भर जौ के लिये आपको हाथ फैलाना पड़ता है। तब इस त्याग में और राज्य करने में अंतर ही क्या रहा?


जो लगातार दान देता है और दान लेता है, उनके मध्य का अंतर समझिये। इस संसार में साधु-संतों को दान देने वाला राजा होना चाहिये। यदि दान देने वाले राजा न रहे, तो मोक्ष की इच्छा रखने वाले महात्माओं का क्या होगा? अन्न से प्राण की पुष्टि होती है, अतः अन्न देने वाला प्राणदाता होता है। सच्चाई तो यही है कि गृहस्थ-धर्म का त्याग करने वाले भी गृहस्थों के सहारे ही जीवन-यापन करते हैं। मुक्ति तो कर्म से भी संभव है। बहुत से लोग जो गेरुए वस्त्र पहन कर घर से निकल जाते हैं, वे नाना प्रकार के बंधनों में बँधे होकर भोगों की खोज में जीवन बिता देते हैं। ऐसे वस्त्र धारण करने का क्या लाभ? असल में वे अपनी आजीविका चलाने हेतु ही ऐसा करते हैं। ऐसा बनकर जीना कभी भी मोक्ष-प्राप्ति का साधन नहीं बन सकता।


आप समझने का प्रयास कीजिये कि आप साधु-महात्माओं का पालन-पोषण कर सकते हैं। उनके लक्ष्य-प्राप्ति में आप उनके सहायक बन सकते हैं। इसके बाद भी आप जितेन्द्रिय होकर पुण्यलोक के अधिकारी बन सकते हैं। थोड़ा विचार कीजिये कि जो प्रतिदिन गुरु के लिये समिधा लाता है अथवा जो बहुत-सी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करता है, उससे बड़ा धर्म परायण कौन हो सकता है? प्रत्येक मानव का अपना धर्म होता है। ठीक उसी प्रकार राजा का भी अपना धर्म होता है। 


आपने एक निष्क्रिय जीवन बिताने का निर्णय किया है। इससे जगत् का क्या भला हो सकता है? आप समझने का प्रयास करें कि जो लोग सर्वदा दान और तप में तत्पर रहकर अपने धर्म का पालन करते हैं, जो दया आदि गुणों से सम्पन्न रहते हैं, काम, क्रोध आदि दोषों का त्याग करते हैं, अच्छी तरह से दान देते हुए प्रजापालन करते हैं तथा वृद्धजन की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं, उन्हें अभीष्ट लोक की प्राप्ति होती है। यदि हम सत्यभाषी होकर हमेशा देवता, अतिथि और समस्त प्राणियों की सेवा करते हुए ब्राह्मणसेवी बने रहते हैं, तो हमें इष्ट लोक की प्राप्ति का अधिकार प्राप्त हो जाता है, अतः हे प्राणनाथ, आप भी गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए प्रजा के रक्षक बनें। अपने राजधर्म का पालन करना ही राजा का असली धर्म होता है। आप स्वयं को कष्ट न दें, वरन् आप सभी के कष्टहारक बनें।’’


इस प्रकार रानी के कहने पर राजा जनक ने साधु-संतों की भाँति जीवन यापन करने का निर्णय त्याग दिया और वे पुनः प्रजापालक बनकर रहने लगे। कहा गया है कि सभी प्राणियों को अपने धर्म का पालन करना चाहिये। उचित समय पर ही वैराग्य की कामना करनी चाहिये। अपने कर्मों से ही मुक्ति संभव होती है। कर्म-त्याग जीवन का लक्ष्य कभी नहीं हो सकता।


विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, November 14, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग -59)


महाभारत की कथा की 84वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।  

तपस्विनी वृद्धकन्या
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पूर्वकाल की बात है। उस समय तपस्वी कुछ भी करने में सक्षम होते थे। उसी समय कुणिमर्ग नामक एक महान् एवं यशस्वी ऋषि हुए। एक बार की बात है। उन्हें एक कन्या-रत्न की इच्छा हुई। तब उन्होंने बड़ा भारी तप किया एवं अपने इस तप के प्रभाव से एक कन्या को उत्पन्न किया। वह रूप एवं गुण में एक अद्भुत सुन्दरी थी। कुणिमर्ग इससे बड़ा प्रसन्न हुए। उनके ही आश्रम में उस कन्या का पालन-पोषण होने लगा। ऋषि ने उसे प्रत्येक प्रकार की शिक्षा दी और उसका मन भी तप की ओर लगने लगा। समय के साथ ऋषि का जीवन-काल समाप्त हुआ और वे स्वर्गलोक चले गये। तब आश्रम का पूरा भार उस कन्या पर आ पड़ा।


उस कन्या ने ऋषि द्वारा दी गयी शिक्षा के अनुसार अपना जीवन बिताना प्रारंभ किया। वह व्रत, तप आदि करने लगी और देवताओं एवं पितरों की पूजा करने लगी। इस प्रकार एक ब्रह्मचारिणी की भाँति उसका जीवन बीतने लगा। इस प्रकार रहते हुए बहुत समय बीत गया। एक समय आया जब वह बूढ़ी और दुबली हो गयी। तब उसने अपनी स्थिति का ध्यान करते हुए शरीर-त्याग का मन बनाया। उसके इस देह-त्याग की इच्छा को देख नारद जी उसके पास आये और उससे कहा - ‘‘देवि! तुमने कठिन से कठिन तप किया। अपने शरीर का भी ध्यान न रखा और अब देह-त्याग का विचार कर रही हो, किन्तु तुम्हें उत्तम लोक की प्राप्ति संभव नहीं, अतः यह विचार त्याग दो।’’ 


वृद्धा ने पूछा - ‘‘ऐसा क्यों मुनिवर? मैंने तप किया है। नियमादि से जीवन यापन किया है। इसके बाद भी उत्तम लोक की प्राप्ति क्यों न होगी?’’


नारद जी ने कहा - ‘‘उचित है देवी, तुमने बड़ी तपस्या की, किन्तु तुम्हारा अभी संस्कार (विवाह) नहीं हुआ है। मैंने देवलोक में सुना है कि संस्कार न होने से कोई उत्तम लोक का अधिकारी नहीं बन सकता।’’


वृद्धा बोली - ‘‘किन्तु मुनिवर, अब इस आयु में मुझसे कौन विवाह करेगा? इस समस्या का कोई समाधान हो तो बताइये।’’


नारद जी ने कहा - ‘‘देवि! मैंने तो वही बताया, जो सत्य है। आगे तुम्हें ही निर्णय लेना है।’’


ऐसा कहकर नारद जी चले गये। उस वृद्धा ने कुछ समय विचार किया और ऋषियों की एक सभा में जाकर कहा - ‘‘आप सभी जानते ही हैं कि मैंने अपना जीवन तप में लगा दिया, किन्तु मुझे उत्तम लोक का अधिकार नहीं मिल पा रहा। मेरा संस्कार होना आवश्यक है, अतः जो कोई भी मेरा पाणिग्रहण करेगा, उसे मैं अपनी तपस्या का आधा भाग दे दूँगी।’’


ऋषियों ने ये बात सुनी तो सभी विचारमग्न हो गये। कुछ समय के बाद ऋषि गालव के पुत्र शृंगवान् ने कहा - ‘‘हे देवि! मैं इस विवाह प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिये तैयार हूँ, किन्तु मेरी एक शर्त है।’’


वृद्धा बोली - ‘‘बताइये मुनिवर, आपकी क्या शर्त है?’’


शृंगवान् ने कहा - ‘‘आपके विवाह का प्रयोजन मात्र उत्तम लोक की प्राप्ति है, अतः उसके तुरन्त उपरान्त आप देह-त्याग करने की इच्छा रखती हैं। मेरी शर्त यह है कि कम से कम एक रात्रि मेरे साथ अवश्य निवास करें।’’


वृद्धा ने कहा - ‘‘आपकी यह शर्त मुझे स्वीकार है।’’


ऐसा कहकर उस वृद्धा ने अपना हाथ मुनि शृंगवान् के हाथों में रख दिया। तब मुनि ने शास्त्रीय पद्धति से हवन आदि करके उसका पाणिग्रहण स्वीकार किया। वह वृद्धा तपोबल से युक्त थी। रात्रि में वह अपने पूर्व रूप में एक रूपवती तरुणी बनकर मुनि के पास गयी। तब वह अपूर्व सुन्दरी लग रही थी। उसके शरीर पर दिव्य-वस्त्र एवं आभूषण शोभा पा रहे थे। दिव्य हार एवं अंगराग से मोहक सुगन्ध फैल रही थी। उसके शरीर की चमक से चारों ओर प्रकाश फैल रहा था। ऋषि शृंगवान् उसे देखकर मोहित हो गये। ऋषि को अपने निर्णय पर गर्व हुआ। उस तरुणी ने ऋषि के साथ एक रात्रि निवास किया।


प्रातःकाल उसने मुनि से कहा - ‘‘विप्रवर! आपने जो शर्त रखी थी, उसके अनुसार मैंने आपके साथ एक रात्रि निवास कर लिया। अब मुझे जाने की आज्ञा प्रदान कीजिये।’’

शृंगवान् को उस वृद्धा से लगाव उत्पन्न हो गया था। उन्होंने कहा - ‘‘किन्तु प्रिये, क्या आपका जाना टल नहीं सकता?’’


वृद्धा ने कहा - ‘‘मुनिवर! विधि का विधान कभी टल नहीं सकता। मैं अब जाती हूँ। हाँ इतना अवश्य कहना चाहती हूँ कि यह स्थल पवित्र बन चुका है। अपने चित्त को एकाग्र करके, देवताओं को तृप्त करके जो कोई भी इस तीर्थ में एक रात्रि निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षों के ब्रह्मचर्य पालन का फल मिलेगा।’’


इतना कहकर उस साध्वी ने देह-त्याग कर दिया और स्वर्गलोक को चली गयी। मुनि उसके दिव्य रूप का स्मरण कर बड़े दुःखी हुए। उन्हें वृद्धकन्या के तप का आधा भाग मिल चुका था। उन्होंने वृद्धकन्या की भाँति ही तप में अपना मन लगा लिया और अपना देह-त्याग कर स्वर्गलोक के भागी बने।


पूर्वकाल से ही भारतवर्ष में वैवाहिक संस्कार को पवित्र माना गया है। यह गृहस्थ आश्रम हेतु आवश्यक है एवं इसे ही संसार के सृजन का हेतु माना गया है।


विश्वजीत ‘सपन’

Thursday, November 8, 2018

महाभारत की लोककथा (भाग - 58)



महाभारत की कथा की 83वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

लोभ का फल
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प्राचीन काल की बात है। गौतम नामक एक मुनि हुआ करते थे। वे बड़े धर्मात्मा पुरुष थे। उनके तीन पुत्र थे - एकत, द्वित एवं त्रित। ये तीनों ही वेदवेत्ता थे। सभी तप करते थे, नियम से रहते थे एवं इन्द्रिय-निग्रह के लिये जाने जाते थे। समय के साथ गौतम परलोकवासी हुए, तब यजमानों ने इन तीनों को भी आदर-सम्मान दिये। इनमें त्रित मुनि अपने पिता के समान ही सम्मानित हुए और यजमानों में उनकी प्रसिद्धि स्थापित हुई।


एकत एवं द्वित समय के साथ धन की कामना करने लगे। उनके धन की पूर्ति त्रित से ही संभव थी, अतः उन्होंने विचारकर त्रित से कहा - ‘‘त्रित, तुम सबसे छोटे हो, किन्तु यजमान तुमसे ही यज्ञ करवाना चाहते हैं। हम दोनों तुम्हारी सहायता करेंगे और यजमानों को इसके लिये मनायेंगे, ताकि हम भी धन और पशु प्राप्त कर सकें। उसके उपरान्त हम सभी मिलकर सोमपान करेंगे।’’


त्रित ने कहा - ‘‘ठीक है भइया, आपलोग जैसा कहें।’’


उसके बाद एकत एवं द्वित यजमानों के पास गये और त्रित द्वारा यज्ञ करवाकर उन्होंने असंख्य पशु प्राप्त किये। उन तीनों की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। त्रित मुनि अपनी क्षमता पर प्रसन्न थे, किन्तु एकत एवं द्वित एक अलग ही योजना बना रहे थे। 


एकत ने कहा - ‘‘द्वित, ऐसा कौन-सा उपाय किया जाये कि ये सारे पशु हमारे पास ही रहें और त्रित के पास न जाने पाये?’’


द्वित ने कहा - ‘‘आप उचित कह रहे हैं भइया। त्रित तो विद्वान् है। लोग उसका सम्मान भी करते हैं। वह तो कभी भी यज्ञ करवाकर अपने लिये पशुओं को एकत्रित कर सकता है। हम इन गायों को हाँककर कहीं और चले जाते हैं, त्रित तो अपने लिये धन इकट्ठा कर ही लेगा।’’


एक दिन की बात है। पशुओं के साथ वे तीनों भाई चले जा रहे थे। त्रित सबसे आगे चल रहा था और उसे अपने दोनों भाइयों की योजना की भनक भी न थी। दैवयोग से उसी मार्ग से सहसा एक भेड़िया उनकी ओर आ गया। त्रित मुनि ने भेड़िये को देखा तो वे भय से भागने लगे। भागते-भागते वहीं बगल में एक कुएँ में गिर पड़े। उस कुएँ में पानी न था। बालू अधिक था, तो त्रित को अधिक चोट नहीं आई। सब ओर लताओं से घिरे होने के कारण वह कुआँ ऊपर से दिखाई नहीं देता था। त्रित ने पुकार लगाई, किन्तु एकत एवं द्वित ने उनकी पुकार न सुनी। एक तो उस भेड़िये का भय था तथा लोभ ने भी उनके मन को अपने चंगुल में फँसा रखा था। उन्होंने सोचा कि वे तो त्रित से पीछा छुड़ाने की ही योजना बना रहे थे और दैवयोग से उनकी योजना स्वयमेव पूरी हो गयी। अवश्य ही भूख-प्यास से त्रित की मृत्यु हो जायेगी और सारे पशु अब उनके हो जायेंगे। ऐसा विचारकर त्रित को वहीं कुएँ में छोड़कर वे दोनों भाई अपने स्थान की ओर चले गये।


उधर त्रित को भी भय हुआ कि अब उनकी मृत्यु निश्चित थी, किन्तु सोमपान की इच्छा अभी पूरी न हुई थी। वे सोचने लगे कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। बुद्धिमान तो थे ही, तो आस-पास की वस्तुओं का निरीक्षण करने लगे। उन्हें उपाय मिल गया। उन्होंने उस बालू के कूप में संकल्प के द्वारा अग्नि की स्थापना की। लता में सोम की भावना से मन ही मन ऋग्, यजुः और साम का चिंतन किया। उसके उपरान्त कंकड़ों में शिला की भावना से उस लता से पीसकर सोमरस निकाला। फिर वेद मन्त्रों से उसकी पूजा की। उनकी वेद-ध्वनि स्वर्ग तक जा पहुँची। 


देव पुरोहित बृहस्पति को वह सुनाई पड़ी, तो उन्होंने देवताओं से कहा - ‘‘त्रित मुनि का यज्ञ हो रहा है। हम सभी को वहाँ चलना चाहिये। वे बड़े तपस्वी हैं, यदि न गये, तो वे क्रोध में आकर दूसरे देवताओं की सृष्टि कर डालेंगे।’’


तब सभी देवतागण देव पुरोहित के साथ त्रित मुनि के पास गये। त्रित मुनि उस कूप में यज्ञ में लीन थे और बड़े तेजस्वी दिखाई दे रहे थे।
देवताओं ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम अपना भाग लेने आये हैं।’’
त्रित मुनि मन्त्र पढ़ते हुए विधिपूर्वक देवताओं को अपने भाग अर्पण किये।


देवताओं ने कहा - ‘‘मुनिवर, हम आपसे प्रसन्न हैं। अपनी इच्छानुसार वर माँगिये।’’


त्रित मुनि ने कहा - ‘‘हे देवगण, आप देख ही रहे हैं कि मैं किस गति में पड़ा हूँ। सर्वप्रथम तो इस कूप से मेरी रक्षा कीजिये। साथ ही ऐसा वर दीजिये कि जो इसमें आचमन करे, उसे सोमपान करने वाले की गति प्राप्त हो।’’


उनके इतना कहते ही वह कूप सरस्वती नदी के जल भरने लगा। उस जल के साथ उठकर त्रित मुनि भी कूप से बाहर आ गये। देवताओं ने ‘‘तथाऽस्तु’’ कहकर उनको वरदान दिया और अपने-अपने स्थल पर चले गये।


त्रित मुनि प्रसन्नतापूर्वक अपने घर आ गये। वहाँ अपने भाइयों को देखकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। उन्होंने उन्हें शाप देते हुए कहा - ‘‘आपलोगों ने मुझे कूप में मरने के लिये छोड़ दिया और महान् पाप किया। इसका दण्ड आपको मिलना ही चाहिये। आपलोगों ने धन के लोभ ऐसा किया, अतः आप अभी भेड़िये बन जाओ और उन्हीं के समान वन में विचरण करो।’’


त्रित मुनि के ऐसा कहते ही एकत एवं द्वित के मुख भेड़िये के समान दिखने लग गये। वे मुँह छुपाकर वहाँ से भाग खड़े हुए। इसी कारण कहा गया है कि कभी भी लोभ नहीं करना चाहिये। इसका परिणाम बुरा ही होता है।


विश्वजीत ‘सपन’

Wednesday, October 31, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 57



 महाभारत की कथा की 82वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।

मुनि जैगीषव्य की लीला
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पूर्वकाल की बात है। देवल नामक एक मुनि हुए। वे गृहस्थ-धर्म का आश्रय लेकर जीवन-यापन करते थे। वे बड़े ही धर्मात्मा एवं तपस्वी थे। मन, वाणी तथा क्रिया से वे समस्त जीवों का समान रूप से सम्मान करते थे। उन्हें क्रोध स्पर्श भी न कर पाता था। प्रतिकूल वचन पर भी वे सामान्य भाव ही प्रदर्शित करते थे। वे सदा ही देवता, ब्राह्मण, अतिथि आदि की सेवा में तत्पर रहा करते थे। 


एक दिन की बात है। महान् धर्मात्मा मुनि जैगीषव्य उनके आश्रम में एक भिक्षुक बनकर आये। वे सिद्धिप्राप्त योगी थे तथा उनकी स्थिति योग में ही बनी रहती थी। मुनि देवल ने उनका आथित्य स्वीकार किया एवं उनकी बड़ी सेवा की। जैगीषव्य मुनि देवल के आतिथ्य से प्रसन्न होकर वहीं रहने लगे, किन्तु वे हमेशा ही योग में लीन रहते थे। वे बोलते भी न थे। उधर मुनि देवल कभी भी योग साधना उनकी उपस्थिति में नहीं करते थे। इस प्रकार अधिक समय बीत गया। 


कुछ समय के बाद जैगीषव्य मुनि बड़ा कम दिखाई देने लगे। मात्र भोजन के समय ही वे देवल मुनि को दिखाई देते थे। मुनि देवल को बात खटकती थी, क्योंकि अब तक उन्होंने देवल से एक शब्द भी कहा न था। यह बात भी मुनि देवल को परेशान करती थी। तब देवल मुनि ने उनके रहस्य को जानने का मन बनाया। वे जानना चाहते थे कि जैगीषव्य का उनके यहाँ आने एवं ऐसा विचित्र व्यवहार करने के पीछे उनका क्या उद्देश्य था? 


इसी क्रम में एक दिन वे सत्य जानने के लिये आकाशमार्ग से समुद्र तट की ओर चल पड़े। जैसे ही वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि मुनि जैगीषव्य वहाँ पूर्व से ही उपस्थित थे। मुनि देवल को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तो वे आश्रम में थे, किन्तु उनके पहुँचने के पूर्व ही समुद्र तट पर पहुँच गये थे तथा उन्होंने उनसे पूर्व स्नान भी कर लिया था। यह कैसे संभव था? ऐसा विचार करते हुए वे भी स्नानकर आश्रम आये, तो देखा कि मुनि जैगीषव्य पूर्व से ही आश्रम में उपस्थित थे। अब उन्हें यह रहस्य जानने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई। उन्हें प्रतीत होने लगा कि जैगीषव्य में कोई न कोई अद्भुत शक्ति अवश्य है।  


ऐसा सोचकर वे आकाश में उनके रहस्य को जानने के लिये उड़ चले। अंतरिक्ष में पहुँचकर उन्होंने सिद्धों को देखा और सबसे बड़े आश्चर्य की बात थी कि वे सिद्ध मुनि जैगीषव्य की पूजा कर रहे थे। उसके उपरान्त तो और भी अद्भुत संयोग हुआ। जैगीषव्य को उन्होंने स्वर्गलोग में जाते देखा, वहाँ से चन्द्रलोक और पुनः चन्द्रलोक से अग्निहोत्रियों के उत्तमलोक में जाते देखा। अब मुनि देवल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वे जहाँ भी जाते उन्हें मुनि जैगीषव्य के दर्शन हो जा रहे थे। कुछ समय तक ऐसा ही चलता रहा, फिर सहसा वे कहीं अन्तर्धान हो गये। तब मुनि देवल को लगा कि वे अवश्य ही कोई असाधारण प्राणी थे। इस रहस्य को जानने के लिये उन्होंने सिद्धों से पूछा - ‘‘बड़े आश्चर्य की बात है कि मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, मुनि जैगीषव्य वहाँ-वहाँ दिखाई देते हैं, किन्तु अभी अचानक ही वे कहीं चले गये। इसका क्या रहस्य है। इसे मुझे विस्तार से बतायें।’’


सिद्धों ने कहा - ‘‘मुनिवर! आप व्यथित न हों। जैगीषव्य एक सिद्ध पुरुष हैं। उनकी लीला वे ही जानें, किन्तु अब वे ब्रह्मलोक चले गये हैं। वहाँ आपकी गति नहीं है, अतः आप आश्रम लौट जायें। वे अवश्य आपकी समस्या का समाधान करेंगे।’’


सिद्धों की बात सुनकर मुनि देवल अपने आश्रम की ओर लौट गये, किन्तु उनका मन अशान्त था। वे मन ही मन विचार कर रहे थे कि यदि इस बार उनका सामना मुनि जैगीषव्य से हुआ, तो वे उनसे मोक्षधर्म का मार्ग अवश्य पूछेंगे। ऐसा विचार करते हुए जब वे आश्रम में पहुँचे, तो उनकी दृष्टि आश्रम में पूर्व से ही बैठे मुनि जैगीषव्य पर पड़ी। तत्काल ही उन्होंने जैगीषव्य को प्रणाम किया और बोले - ‘‘भगवन्! मैं आपको पहचान न सका। इस भूल के लिये मुझे क्षमा करें।’’


मुनि जैगीषव्य के मुख पर मात्र मुस्कान थी। देवल मुनि फिर बोले - ‘‘मुनिवर! मैं संन्यास का आश्रय लेना चाहता हूँ। कृपाकर मुझे मोक्षधर्म का मार्ग बतायें।’’


अब मुनि जैगीषव्य को विश्वास हो गया कि मुनि देवल शिक्षा ग्रहण करने हेतु तैयार थे। तब उन्होंने मुनि देवल को ज्ञान का उपदेश दिया। फिर उन्हें योग की विधि बताई और उसके उपरान्त उनको कर्तव्य एवं अकर्तव्य का भी उपदेश दिया।


इस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मुनि देवल ने गृहस्थ-धर्म का परित्याग कर दिया। उन्होंने मोक्ष-धर्म में अपनी प्रीति लगाई। इस प्रकार उन्होंने परा सिद्धि एवं परम योग को प्राप्त किया।


विश्वजीत 'सपन'

Thursday, October 25, 2018

महाभारत की लोककथा भाग- 56



महाभारत की कथा की 81वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

जीने की चाह
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बहुत पुरानी बात है। किसी गाँव में एक व्यक्ति रहता था। वह बड़ा ही निडर और साहसी था। सभी उसके साहस की प्रशंसा करते थे। इस बात का उसे अभिमान भी था। उसमें उत्साह की भी कोई कमी न थी। काम और नयी वस्तुओं की खोज में वह भटकता रहता था। इस कारण वह अनेक स्थलों का भ्रमण किया करता था। 


एक दिन की बात है। वह किसी बड़े वन में जा रहा था। चलते-चलते वह बड़े ही वीरान और दुर्गम क्षेत्र में पहुँच गया। वहाँ वन बड़ा ही घना था। हर तरफ जंगली जानवरों का संकट मँडरा रहा था। जब उस सुनसान जंगल में भाँति-भाँति की आवाज़ें आने लगीं, तो वह व्यक्ति अत्यधिक भयभीत हो गया। भय के कारण इधर-उधर भागने लगा। उसका साहस जवाब दे रहा था, किन्तु वह मरना नहीं चाहता था। जीने की उसकी चाह उसे भागने और जान बचाने को विवश कर रही थी। वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर भाग रहा था तथा किसी सुरक्षित स्थान की खोज में था, किन्तु उसे ऐसा कोई स्थान नहीं मिल पा रहा था और न ही वह जंगल से बाहर ही निकल पा रहा था। भय का साया जब गहरा जाता है, तो भय उस व्यक्ति के पीछे लग जाता है। भागते-भागते उसने ऊपर की ओर देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। वह पूरा का पूरा वन जालों से घिरा हुआ था। निकलने का कोई मार्ग न था। फिर उसने देखा कि एक बड़ी ही भयानक स्त्री उसे अपनी भुजाओं में घेरने के लिये उसकी ओर आगे बढ़ रही थी। वह समझ गया कि यदि वह उस स्त्री की पकड़ में आ गया, तो उसके प्राण नहीं बच सकते थे। उधर वह भयानक स्त्री अट्टहास करती उसकी ओर ही चली आ रही थी। उसने अपनी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई तो देखा कि एक बड़ा ही विशाल पाँच सिरवाला नाग भी उसकी ओर अपना जीभ लपलपाते हुए बढ़ा चला आ रहा था। अब उसे अपने बचने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा था। वह और वेग से भागने लगा। अब उसे यह पता न था कि वह कहाँ और किस दिशा में भाग रहा था। उस जंगल में झाड़-झंखाड़ों के बीच एक गहरा कुआँ था। उस पर झाड़-झंखाड़ और खर-पतवार उगने से वह दिखाई नहीं दे रहा था। भागता हुआ वह व्यक्ति उसी कुएँ में गिर गया। वह तेजी से गिरने लगा। तब उसे लगा कि वह नहीं बच पायेगा, किन्तु सौभाग्य से लताओं में उसका पैर फँस गया। उसका पैर ऊपर को और सिर नीचे की ओर हो गया और वह बीच में ही लटक गया।


जान बची लाखों पाये वाली कहावत उसे याद आई। किन्तु समस्या यह थी कि उन लताओं से छूटने का कोई उपाय न सूझ रहा था। तभी उसने नीचे की ओर देखा। वहाँ एक बड़ा भारी साँप लपलपाते हुए उसे ही देख रहा था। उसने सोचा कि भला हुआ वह नीचे नहीं गिरा, अन्यथा उस साँप से बचना तो मुश्किल ही था। अब उसने सोचा कि किसी तरह ऊपर की ओर जाना ही उचित होगा। उसने बड़ी मुश्किल से ऊपर की ओर देखा। उसे वहाँ एक बहुत ही विशालकाय हाथी दिखाई पड़ा। उसका शरीर कहीं सफेद और कहीं काला था। उसके छः मुँह और बारह पैर थे। वह बड़ा ही अजीब दिख रहा था। वह धीरे-धीरे कुएँ की ओर ही बढ़ा चला जा रहा था। उस व्यक्ति के ऊपर की ओर जाने की आशा भी कम हो गयी। यदि वह ऊपर गया तो उस हाथी से बच पाना मुश्किल ही था। अब वह क्या करे और क्या न करे की उलझन में था। किन्तु उसके जीने की आशा अब भी बनी हुई थी। अतः उसने चारों ओर देखना प्रारंभ किया कि कुछ तो ऐसा होगा, जिससे उसे जीने में सहायता होगी। तब उसने देखा कि उस कुएँ के किनारे एक वृक्ष था। उसकी शाखाओं पर मधुमक्खियों ने कई छत्ते बना रखे थे। समय-समय पर उससे मधु की धाराएँ नीचे टपक रही थीं। उसने प्रयत्न कर शहद से अपनी भूख और प्यास मिटाने की व्यवस्था कर ली। अब वह शहद पीकर उसी प्रकार जीवन जीने लगा। उस वृक्ष को रात-दिन चूहे काट रहे थे, जिसे देख वह व्यक्ति निराश होता रहता था, किन्तु उसके जीवन की आशा ने उसे बचाये रखा।


इसी कारण से कहा जाता है कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ हों, अनेक प्रकार के भय हों, अनेक प्रकार के कष्ट झेलने पड़ रहे हों, यदि मनुष्य जीने की इच्छा रखता है, तो वह अवश्य जी लेता है। वह कैसी भी स्थिति में जीने का मार्ग अवश्य ढूँढ ही लेता है।

Sunday, October 21, 2018

महाभारत की लोककथा भाग-55




महाभारत की कथा की 80वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 
 
श्रुतावती की तपस्या
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प्राचीन काल की बात है। भरद्वाज की एक रूपमती कन्या थी। उसका नाम श्रुतावती था। उसने मन ही मन इन्द्र को अपना पति मान लिया था। फिर उसने इन्द्र को पति के रूप में पाने के लिये बड़ी उग्र तपस्या की। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए अत्यन्त ही कठोर नियमादि का पालन करने लगी। अनेक वर्षों की उसकी इस भक्ति और तप को देखकर देवराज इन्द्र प्रसन्न हो गये। उन्होंने श्रुतावती को दर्शन दिया और बोले - ‘‘शुभे! मैं तुम्हारी तपस्या एवं भक्ति से प्रसन्न हूँ। बोलो तुम्हें क्या वर चाहिये?’’


श्रुतावती ने कहा - ‘‘देवेश! मुझे आपकी अर्द्धांगिनी बनने का सौभाग्य प्राप्त करना है। इस वर की पूर्ति हेतु आपसे प्रार्थना है।’’


इन्द्र ने कहा - ‘‘देवि! तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। इस शरीर का त्याग कर तुम मेरे साथ स्वर्ग में निवास करोगी। तुम जानती हो कि इस बदरपाचन नामक पवित्र तीर्थ में अरुन्धती सप्तर्षियों के साथ रहा करती थी। एक दिन सप्तर्षि उसे अकेला छोड़कर जीविका निर्वाहन हेतु फल-फूल लाने के लिये हिमालय पर चले गये। वहाँ उन्हें जब कुछ भी न मिला तो वे वहीं आश्रम बनाकर रहने लगे। उस समय इस स्थल पर बारह वर्षों से वर्षा नहीं हो रही थी। तब अरुन्धती तपस्या में संलग्न रहने लगी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर उससे मिलने एक ब्राह्मण के वेष में आये।’’


शंकर बोले - ‘‘हे देवि! मैं भिक्षा लेने आया हूँ। कुछ खाने को मिलेगा?’’


अरुन्धती ने कहा - ‘‘विप्रवर! अन्न तो समाप्त हो चुका है। मात्र कुछ बेर ही रह गये हैं, यदि आपकी इच्छा है, तो इन्हें खा सकते हैं।’’


शंकर ने कहा - ‘‘ठीक है देवि, जैसा तुम कहो। ऐसा करो कि इन फलों को पकाकर मुझे दो।’’


अरुन्धती ने तब प्रज्वलित अग्नि पर बेरों को पकाना प्रारंभ किया। उसी समय उसे पवित्र एवं दिव्य कथायें सुनाई देने लगीं। वह बिना कुछ खाये ही उन बेरों को पकाती रही और कथायें सुनती रही। सहसा बारह वर्षों की वह अनावृष्टि समाप्त हो गयी। इतना अधिक समय बीत गया, किन्तु उसे वह एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। तब तक सप्तर्षि भी फल-फूल लेकर लौट आये।


शंकर भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा - ‘‘हे धर्म को जानने वाली देवि, अब तुम पूर्व की भाँति इन ऋषियों की सेवा करो। तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूँ।’’


यह कहकर शंकर जी ने स्वयं को प्रकट कर दिया। मुनियों सहित अरुन्धती ने उन्हें विधिवत प्रणाम किया तो वे मुनियों से बोले - ‘‘मुनिवर, आप लोगों ने हिमालय में रहकर जिस तप का उपार्जन किया है, अरुन्धती ने यहीं रहकर कर लिया, और तो और उसने बारह वर्षों तक बिना कुछ खाये, बेर पकाते हुए यह कठिन तप किया है, उसका तप आपसे भी श्रेष्ठ है।’’


उसके पश्चात् भगवान् शंकर ने अरुन्धती से कहा - ‘‘हे देवि, तुम्हारा कल्याण हो। यदि तुम्हारी कोई मनोकामना हो, तो बोलो। मैं तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करूँगा।’’


अरुन्धती ने कहा - ‘‘हे देवों के देव महादेव, यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं, तो यह स्थान बदरपाचन तीर्थ हो जाये। जो भी मनुष्य इस स्थल पर पवित्रतापूर्वक तीन रात्रि तक निवास तथा उपवास करे, उसे बारह वर्षों के तीर्थ सेवन का फल प्राप्त हो।’’


शंकर भगवान् ने कहा - ‘‘ऐसा ही होगा देवि।’’


फिर सप्तर्षियों ने शंकर की स्तुति की और वे अपने धाम चले गये। अरुन्धती इतने वर्षों तक भूखी-प्यासी रही, किन्तु न तो वह थकी और न ही मुख मलिन हुआ। ऋषिगण भी यह देखकर आश्चर्य कर रहे थे।
‘‘तो देवि, यहीं पर अरुन्धती को परम सिद्धि प्राप्ति हुई थी, तुमने भी अरुन्धती की भाँति ही तप का पालन किया है, अतः तुम्हारे सभी मनोरथ अवश्य पूर्ण होंगे।’’ 


ऐसा कहकर इन्द्र अपने धाम को चले गये। उनके जाते ही वहाँ फूलों की वर्षा होने लगी। देवताओं की दुन्दुभी बज उठी। सुगन्धित वायु चलने लगी। उसी समय श्रुतावती ने देह त्याग कर दिया और स्वर्ग में इन्द्र की पत्नी के रूप में रहने लगी।


कहते हैं कि जो भी बदरपाचन तीर्थ में स्नान करके तथा एकाग्रचित्त होकर एक रात्रि निवास करता है, उसे देह त्याग करने के पश्चात् दुर्लभ लोकों की प्राप्ति होती है।



विश्वजीत 'सपन'

Wednesday, October 17, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 54


महाभारत की कथा की 79वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

अरुणा नदी का माहात्म्य
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प्राचीन काल की बात है। उस समय दानवों का राजा नमुचि था। उसने बड़ा उत्पात मचाया, तो इन्द्र ने उसे मारने का प्रण लिया। इस बात से नमुचि भयभीत हो गया और भय के कारण सूर्य की किरणों में जाकर छुप गया। अब इन्द्र के लिये उसे मारना असंभव हो गया। तब बड़ा विचारकर इन्द्र ने नमुचि से मित्रता कर ली।


इन्द्र ने कहा - ‘‘अब तो तुम मेरे मित्र हो गये हो। अब बाहर निकल आओ।’’


नमुचि को इन्द्र पर विश्वास न था, उसने कहा - ‘‘नहीं, जब तक आप प्रतिज्ञा नहीं करते कि आप मुझे मारेंगे नहीं, तब तक मैं बाहर नहीं आता।


इन्द्र ने कहा - ‘‘जब मैंने वचन दे दिया, फिर क्या डरना?’’


नमुचि ने कहा - ‘‘तुम्हारी बात सही, किन्तु मुझे तुम्हारी प्रतिज्ञा चाहिये, अन्यथा मैं बाहर नहीं आता।’’


इस प्रकार नाना प्रकार से समझाने के उपरान्त भी नमुचि न माना, तब इन्द्र ने नमुचि से कहा - ‘‘असुरश्रेष्ठ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तुम्हें न गीले अस्त्र से मारूँगा, न सूखे अस्त्र से, न मैं दिन में मारूँगा और न ही रात में। यह मैं सत्य की सौगंध खाकर कहता हूँ, अतः अब तो बाहर आ जाओ।’’


इस प्रकार अपनी बातों से इन्द्र ने नमुचि को सूर्य की किरणों से बाहर निकलवा लिया। नमुचि प्रसन्न था कि अब उसे इन्द्र का कोई भय न था, किन्तु उसे पता नहीं था कि इन्द्र ने ऐसा जान-बूझकर कहा था। वे समय की प्रतीक्षा में थे। फिर एक दिन अवसर पाकर जब धरती पर कुहासा (न रात न दिन) छाया हुआ था, पानी के फेन (न गीला न सूखा) से उन्होंने नमुचि का सिर काटकर उसका वध कर दिया।


नमुचि के लिये बड़ा कष्टकारक विषय था। मित्र होते हुए भी इन्द्र ने छल से उसका सिर काट दिया था। तब उसका कटा हुआ सिर इन्द्र के पीछे लग गया। वह कहने लगा - ‘‘तुमने मुझसे मित्रता की और उसके उपरान्त छल से मेरा सिर काट लिया। तुम पापी हो। तुमने अपने मित्र के वध करने का अपराध किया है। जब तक मुझे न्याय नहीं मिल जाता मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूँगा। तुम अपराधी हो।’’


इन्द्र जहाँ-जहाँ जाते, नमुचि का सिर उनके पीछे ही रहता और वही बातें दुहराता रहता था। इस प्रकार अनेक बार नमुचि के सिर के ऐसा कहने से इन्द्र भी घबरा उठे। वे भागे-भागे ब्रह्मा जी के पास गये और बोले - ‘‘भगवन्! यह नमुचि का सिर मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। प्रतीत होता है कि मित्र का वध करने के कारण ब्रह्महत्या का दोष लग गया है। अब आप ही कुछ उपाय सुझायें। मैं अत्यधिक कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।’’


तब इन्द्र की समस्या पर विचार कर ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘इन्द्र! तुम घबराओ नहीं। अरुणा नदी के तट पर जाओ। पूर्वकाल में सरस्वती नदी ने गुप्त रूप से अरुणा नदी को अपने जल से पूर्ण किया था, अतः वह सरस्वती एवं अरुणा नदी के संगम का स्थल पवित्र बन गया है।’’
‘‘यह कैसे हुआ भगवन्।’’ इन्द्र ने पूछा।


ब्रह्मा जी ने कहा - ‘‘एक बार की बात है। राक्षसों ने अपने उद्धार के लिये महर्षियों से विनती की। महर्षियों ने राक्षसों के कल्याण के संदर्भ में विचार किया और तब उनकी मुक्ति के लिये उन्होंने महानदी सरस्वती का स्तवन किया। इस अनुरोध को स्वीकार कर समस्त सरिताओं में श्रेष्ठ सरस्वती अपनी स्वरूपभूता अरुणा को लेकर आई। राक्षसों ने उसमें स्नान कर ब्रह्महत्या के दोषों से मुक्ति पायी थी। तब से यह संगम पवित्र बन गया है और ब्रह्महत्या के दोष का निवारण करने वाला भी है। उस संगम में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। तुम उस स्थल पर जाओ। वहाँ यज्ञ और दान करो। उसके बाद उस पवित्र संगम में स्नान करो। तुम्हारा संकट दूर हो जायेगा।’’


ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर इन्द्र तत्काल ही सरस्वती नदी के उस पवित्र संगम-स्थल पर गये। उन्होंने वहाँ जाकर एक बड़ा-सा यज्ञ किया और अनेक प्रकार की वस्तुओं का दान किया। उसके पश्चात् उन्होंने उस पवित्र संगम में स्नान किया। स्नान करते ही उनका ब्रह्महत्या का पाप धुल गया। वे भयरहित हो गये, किन्तु नमुचि का सिर अभी भी उनके पीछे था। यह कैसे संभव था? इन्द्र विचार करने लगे। तभी उन्हें ध्यान आया कि नमुचि को मुक्ति नहीं मिली है।


ऐसा विचारका इन्द्र ने नमुचि के सिर से कहा - ‘‘मित्र, मैं ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो चुका हूँ। अब तुम भी इस पवित्र संगम में स्नान करके मुक्त हो जाओ।’’


नमुचि ने वैसा ही किया। उसने भी पवित्र संगम में गोता लगाया। तत्क्षण ही उसके सारे पाप धुल गये और वह अक्षय लोक का अधिकारी बना। 


विश्वजीत 'सपन'

Sunday, October 7, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग - 53





महाभारत की कथा की 78वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा। 

तपोबल का प्रभाव

प्राचीन काल की बात है। तब पृथ्वी पर हैहयवंशी क्षत्रियों का राज्य था। परपुरञ्जय नामक उनका एक राजकुमार था। वह बड़ा ही सुन्दर एवं वंश की मर्यादाओं में वृद्धि करने वाला एक पराक्रमी योद्धा था। एक दिन की बात है। राजकुमार वन में शिकार खेलने के लिये गया। बड़ा भटकने के बाद भी उसे कोई पशु दिखाई न दिया। वह चलते-चलते घने वन में जा पहुँचा। वन इतना घना था कि कुछ भी अच्छी तरह से दिखाई न देता था। सहसा उसे थोड़ी दूर पर एक काला मृग बैठा दिखाई दिया। उसने बाण से निशाना लेकर उस पर बाण छोड़ दिया। वह बाण सीधे उस मृग को लगा और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। राजकुमार बड़ा प्रसन्न हुआ। जब वह मृग के पास पहुँचा, तो चौंक गया। असल में वह कोई मृग न था, बल्कि कोई मुनि थे, जो काला मृगचर्म ओढ़े वहाँ बैठे हुए थे। राजकुमार को यह देखकर बड़ा संताप हुआ कि चाहे भूल से ही सही उसने एक ब्राह्मण की हत्या कर दी थी। वह दुःखी मन से अपने राज्य लौट आया और उसने हैहयवंशी क्षत्रियों से जाकर कहा - ‘‘आज मुझसे एक बड़ा भारी पाप हो गया। भूल से एक मुनि की हत्या हो गयी। एक जघन्य अपराध हो गया। मुझे अत्यधिक ग्लानि हो रही है, किन्तु प्रायश्चित्त का कोई उपाय तो करना ही होगा।’’


इस प्रकार उसने सारी घटना उन लोगों को सुना दी। यह सुनकर सभी क्षत्रिय शोक में डूब गये। उस समय ब्रह्महत्या सबसे बड़ा पाप माना जाता था। इस पाप कर्म का प्रायश्चित्त तो करना ही होगा। ऐसा सोचकर वे सभी कश्यपनन्दन अरिष्टनेमि के आश्रम पर पहुँचे। 


मुनि ने पूछा - ‘‘आप सभी यहाँ किस प्रयोजन से आये हैं? बतायें मैं आप लोगों की क्या सेवा कर सकता हूँ? प्रतीत होता है कि आप सभी किसी संकट में हैं।’’


क्षत्रिय बोले - ‘‘सत्य कहा आपने मुनिवर, हमसे एक बड़ा पाप हो गया है। किसी प्रकार आप ही इसका निदान ढूँढ सकते हैं। कृपया हमारी सहायता करें।’’


मुनि बोले - ‘‘अवश्य, किन्तु कौन-से पापकर्म की बात आप कर रहे हैं। कृपाकर स्पष्ट बतायें।’’


क्षत्रिय बोले - ‘‘मुनिवर हमसे एक ब्राह्मण की हत्या हो गयी है। ब्रह्महत्या का पाप है। इससे बचने के लिये क्या प्रायश्चित्त होगा, उस हेतु आपकी शरण में आये हैं।’’


मुनि बोले - ‘‘यह तो सच में चिंता का विषय है। ब्रह्महत्या तो भारी पाप है, किन्तु यह ब्रह्महत्या कैसे हुई? वह मरा हुआ ब्राह्मण कहाँ है?’’


तब राजकुमार ने पूरी घटना उन्हें विस्तार से बता दी एवं मुनि को लेकर उस स्थान पर गया, जहाँ उस मुनि का मृत शरीर पड़ा हुआ था, किन्तु वहाँ कोई मृत शरीर न था। तब सभी आश्चर्य में पड़ गये कि वह मृत शरीर गया कहाँ? क्या कोई पशु उठाकर ले गया? उन्हें इस प्रकार अचम्भे में पड़े देखकर मुनि अरिष्टनेमि ने कहा - ‘‘
परपुरञ्जय, यह देखो, यह वही ब्राह्मण है, जिसे तुमने मार डाला था। यह जीवित है।’’

मुनि ने उस ब्राह्मण की ओर संकेत करते हुए पूछा। यह वही ब्राह्मण था, जिसे
परपुरञ्जय का बाण लगा था।


परपुरञ्जय आश्चर्य से उस ब्राह्मण देखते हुए बोला - ‘‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है मुनिवर। मैंने बाण से इन्हें मार दिया था। ये धरती पर गिरकर मृत हो चुके थे। मैंने स्वयं देखा था, किन्तु ये जीवित कैसे हो गये?’’

मुनि ने कहा - ‘‘यह मेरा पुत्र है। यह तपोबल से युक्त है।’’


क्षत्रियों ने कहा - ‘‘क्या यह तपस्या का बल है, मुनिवर? हम सभी इस रहस्य को जानने को इच्छुक हैं। मृत व्यक्ति क्या तप के बल से जीवित हो सकता है?’’


मुनि ने कहा - ‘‘आप सभी सुनें। मृत्यु हम पर प्रभाव नहीं डालती। हम सदा सत्य बोलते हैं एवं सदा धर्म का पालन करते हैं, अतः मृत्यु का भय हमें नहीं होता। हम शुभकर्मों की चर्चा करते हैं तथा दोषों का बखान नहीं करते। हम शम, दम, क्षमा, तीर्थसेवन तथा दान में तत्पर रहते हैं। पवित्र स्थल पर पवित्रता से रहते हैं। इस कारण हमें मृत्यु का भय नहीं होता। संक्षेप में इसे ही हमारे तप का बल कह सकते हैं। आप लोग अब अपने घर जायें। आपको ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा।’’


यह सब सुनकर सभी क्षत्रिय बड़े प्रसन्न हो गये। उन्हें एक बड़े पाप से छुटकारा मिल गया था। उन्होंने मुनिवर अरिष्टनेमि का बड़ा सम्मान किया एवं उनकी पूजा की। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वे सभी प्रसन्न होकर अपने-अपने घर चले गये।


तप में अत्यधिक बल होता है। एक तपस्वी ही इसे जान सकता है। तप करने वाले को जीवन में किसी भी प्रकार का भय नहीं होता।


विश्वजीत 'सपन'

Tuesday, October 2, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग 52


महाभारत की कथा में 77वीं कड़ी में प्रस्तुत एक और महाभारत की लोककथा।

ऋष्यशृंग का जीवन-चरित

प्राचीन काल की बात है। ऋष्यशृंग नामक एक मुनि हुए। उनका जन्म एक मृगी के उदर से हुआ था। उनके सिर पर एक सींग था, अतः वे ऋष्यशृंग के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने अपने पिता ब्रह्मर्षि विभाण्डक के अतिरिक्त किसी को न देखा था, अतः उनका मन सदैव ब्रह्मचर्य में स्थित रहता था। वे अपने पिता के आश्रम में वन में रहते थे, किन्तु बड़े ही महान् तप वाले थे।


उसी समय अंगदेश में लोमपाद नामक एक राजा थे। उन्होंने किसी ब्राह्मण को कुछ देने का प्रण लिया, किन्तु उसे निराश किया, तो उनके राज्य में वर्षा नहीं होती थी। प्रजा हाहाकार कर रही थी। राजा ने तपस्वी ब्राह्मणों को बुलाकर पूछा - ‘‘हमारे राज्य में वर्षा नहीं होती। आपलोग इसका कुछ उपाय बतायें।’’


ब्राह्मणों ने कहा - ‘‘राजन्, ब्राह्मण आप पर कुपित हैं, अतः प्रायश्चित्त कीजिये। एक तपस्वी मुनि कुमार ऋष्यशृंग हैं, उन्हें किसी प्रकार राज्य में लाइये। उनके चरण पड़ते ही वर्षा होने लगेगी, किन्तु ध्यान रहे कि उनको स्त्री जाति का कुछ भी पता नहीं है।’’


राजा लोमपाद ने पहले प्रायश्चित्त किया तथा उसके पश्चात् ऋष्यशृंग को राज्य में लाने के उपायों के लिय अपने मंत्रियों आदि से परामर्श किया। विचार कर उन्होंने राज्य की प्रधान गणिकाओं को बुलाकर कहा - ‘‘आपलोग किसी भी प्रकार उपायकर ऋष्यशृंग को इस राज्य में लाइये। आपको जो चाहिये वो मिलेगा।’’


एक वृद्धा गणिका ने कहा - ‘‘राजन्, मैं यह प्रयास अवश्य करूँगी, किन्तु जिन-जिन सामग्रियों की मुझे आवश्यकता होगी, उन्हें प्रदान करना होगा।’’


राजा ने अपनी सहमति प्रदान कर दी। तब उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि से एक सुन्दर नौका का निर्माण किया। उसमें एक आश्रम बनाया, जो वास्तव के आश्रम के समान ही वनों एवं उपवनों से सजा हुआ था। उसे ले जाकर उसने विभाण्डक मुनि के आश्रम के निकट जाकर बँधवा दिया। उसके उपरान्त उसने गुप्तचरों से पता लगवाया कि मुनि कब आश्रम में नहीं रहते हैं। एक दिन जब मुनि आश्रम में नहीं थे, तब उसने अपनी सुन्दर पुत्री को मुनि कुमार के पास भेजा।


वह गणिका-पुत्री उनके पास जाकर, उन्हें प्रणामकर बोली - ‘‘मुनिवर, यहाँ सभी आनन्द में तो हैं। आपको कोई कष्ट तो नहीं है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘आपकी कान्ति अनुपम है। आप पहले इस मृगचर्म से ढके हुए कुश के आसन पर विराजिये। आपको जल देता हूँ। यहाँ सब ठीक है। आपका आश्रम कहाँ है?’’


गणिका बोली - ‘‘मेरा आश्रम इस पर्वत के पीछे तीन योजन दूर है। मैं किसी को प्रणाम करने नहीं देता तथा न ही किसी का स्पर्श किया हुआ कुछ लेता हूँ। मैं प्रणम्य नहीं, बल्कि आप मेरे वंद्य हैं।’’


ऋष्यशृंग ने तब कहा - ‘‘ऐसा है, तो आप अपनी रुचि के अुनसार ही कुछ ग्रहण करें।’’


उस गणिका ने उनका दिया कुछ भी स्वीकार न किया, बल्कि अपने पास से लायी स्वादिष्ट, रसीले पदार्थ उनको दिये। बड़े सुन्दर-सुन्दर, चमकीले वस्त्र, मालायें एवं शरबत आदि दिये। ऋष्यशृंग को वे बड़े पसंद आये। तब उस गणिका ने नाना प्रकार से उन्हें लुभाया और उनके मन में विकार उत्पन्न कर दिया। जब वह समझ गयी कि मुनि कुमार अब उन्हें चाहने लगे हैं, तो वह अग्निहोत्र का बहाना कर वहाँ से चली गयी। कुछ समय के पश्चात् मुनि विभाण्डक आये, तो उन्हें मुनि कुमार को अपने चित्त के विपरीत पाया। उन्होंने पूछा - ‘‘क्या बात है, पुत्र। आज अग्निहोत्र का कार्य भी सम्पादित नहीं हुआ। तुम्हारा मन अचेत-सा है। कुछ परेशान-से हो। क्या बात है?’’


ऋष्यशृंग ने कहा - ‘‘पिताश्री, आज आश्रम में एक जटाधारी ब्रह्मचारी आया था। वह बड़ा ही तेजस्वी था। उसके गले में अनेक प्रकार के मनोरम आभूषण थे। गले की नीचे दो मांसपिण्ड थे। वह रोमहीन एवं मनोहर था। उसका स्वरूप विचित्र, किन्तु मनभावन था। उसकी वाणी बड़ी सुरीली और मीठी थी। उसने मुझे सुन्दर-सुन्दर व्यंजन खाने को दिये। वह चला गया, तो मन विचलित हुआ। मैं चाहता हूँ कि शीघ्र ही उसके पास जाऊँ और उसे यहाँ लाकर अपने पास रखूँ।’’


विभाण्डक समझ गये कि या तो वह राक्षस था अथवा कोई स्त्री। उन्होंने अपने पुत्र को समझाते हुए कहा - ‘‘पुत्र, ये राक्षस होते हैं, जो इस प्रकार के रूप धारण करते हैं। उनके पेय मनुष्यों के लिये नहीं होते। इनसे मत मिलना।’’


इतना कहने के उपरान्त भी मुनि निश्चिंत न हो सके और उनकी खोज में गये। कई दिनों तक ढूँढने के बाद भी उनका पता न चला, तो आश्रम लौट आये। फिर एक दिन उन्हें फल-फूल लेने के लिये आश्रम से बाहर जाना पड़ा। उसी समय का लाभ उठाकर वह गणिका पुनः मुनि कुमार के पास आयी। ऋष्यशृंग उसे देखकर प्रसन्न हो गये और बोले - ‘‘देखो, जब तक पिताजी आते हैं, उससे पहले ही हम तुम्हारे आश्रम चलेंगे।’’


गणिका यही चाहती थी। वह उन्हें लेकर अपनी नाव में गयी। फिर नाना प्रकार से उनका मनोरंजन करते हुए उन्हें लोमपाद के नगर लेकर चली गयी। अंगराज ने उन्हें प्रणाम किया और अपने अन्तःपुर में ले गये। इतने में ही वर्षा प्रारम्भ हो गयी। सारे तलाब जलमग्न हो गये। राजा अत्यधिक प्रसन्न हो गये और उन्होंने अपनी पुत्री शान्ता से मुनि कुमार का विवाह करवा दिया।


उधर मुनि विभाण्डक अपने आश्रम पहुँचे, तो उन्हें अपना पुत्र दिखाई न दिया। वे क्रोधित हो गये। अंगराज का षड्यन्त्र जानकर उन्हें भस्म करने के विचार से चम्पानगरी की ओर चल पड़े। मार्ग में चलते-चलते जब वे थक गये और उन्हें भूख भी सताने लगी, तो वहीं उन्होंने कुछ ग्वालों को देखा। वे उनके पास गये, तो उन ग्वालों ने उनकी बड़ी सेवा की। उन्हें राजा के समान मान-सम्मान दिया। मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा - ‘‘इतनी सेवा क्यों? तुम तो मुझे जानते भी नहीं। तुमलोग किनके सेवक हो?’’


ग्वालों ने उन्हें प्रणामकर कहा - ‘‘मुनिवर, यह सब आपके पुत्र की ही सम्पत्ति है। हम उनके ही सेवक हैं।’’


इस प्रकार चम्पानगरी के मार्ग में वे अनेक स्थलों पर रुके और प्रत्येक स्थल पर उनका स्वागत-सत्कार हुआ। अपने पुत्र के सन्दर्भ में उन्हें अनेक मधुर वाक्य सुनने को मिले, तो उनका कोप शान्त हो गया। 


अनेक दिनों की यात्रा के बाद वे चम्पानगरी पहुँचे, तो राजा लोमपद ने उनका विधिवत् पूजन किया। उन्होंने देखा कि देवराज इन्द्र की भाँति उनके पुत्र की सेवा है और उसका रहन-सहन है। साथ ही उन्होंने जब अपनी सुन्दर पुत्रवधू को देखा, तो उनका रहा-सहा क्रोध भी जाता रहा। मुनि विभाण्डक ने समझ लिया कि यह अवश्य ही विधि का विधान था। वे चलते समय अपने पुत्र से बोले - ‘‘पुत्र, तुम सुख से रहो, किन्तु जब तुम्हारे पुत्र उत्पन्न हो जायें, तब राजा का सब प्रकार से मान रखकर वन में चले आना।’’

ऋष्यशृंग ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। शान्ता भी सब प्रकार से अपने पति के अनुकूल आचरण करने वाली थी। वह भी वन में रहकर अपने पति की सेवा करने लगी।


- विश्वजीत 'सपन'

Saturday, September 29, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 51


 
महाभारत की कथा की 76वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

परब्रह्मपद की इच्छा 
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प्राचीन काल की बात है। कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक ऋषि हुआ करते थे। उन्होंने अतिथियों की सेवा का व्रत ले रखा था। वे बड़े कर्मनिष्ठ एवं तपस्वी थे। भिक्षा माँगकर अन्न इकट्ठा करते थे तथा उससे ‘इष्टीकृत’ नामक यज्ञ करते थे। प्रत्येक अमावस्या एवं पूर्णिमा को दर्श-पौर्णमास यज्ञ करते तथा अतिथियों को खिलाने के बाद जो बचता था, उससे ही अपना एवं अपने परिवार का निर्वाह करते थे। वे सभी एक पक्ष में एक ही दिन भोजन करते थे। उनके मन में कभी भी द्वेष नहीं आता था। उनका अन्न कभी घटता नहीं था, वरन् बढ़ता रहता था। इस कारण मुनि की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी।
इस प्रसिद्धि के बारे में जब दुर्वासा ऋषि को पता चला, तो वे परीक्षा लेने चले गये। अभी यज्ञ समाप्त ही हुआ था कि नंग-धड़ंग दुर्वासा उनकी कुटिया में आये।


दुर्वासा बोले - ‘‘विप्रवर! मैं आपकी कुटिया में भोजन की इच्छा से आया हूँ।’’


मुद्गल बोले - ‘‘मुनिवर! अहोभाग्य जो आप हमारी कुटिया में पधारे। आप हाथ-मुँह धो लें, मैं आपके भोजन की अभी व्यवस्था करता हूँ।’’


समस्त व्यवस्था करके उन्होंने दुर्वासा को भोजन परोस दिया। भोजन दुर्वासा को बड़ा स्वादिष्ट लगा। वे खाते गये। मुद्गल मुनि भी उन्हें भोजन तब तक देते रहे, जब तक कि दुर्वासा ऋषि संतुष्ट न हुए। इस प्रकार उन्होंने उनके घर का सारा अन्न खा लिया और जो जूठन बचा था, उसे अपने शरीर में लपेट लिया। उसके बाद वे धन्यवाद् कहकर जिधर से आये थे, उधर चले गये। मुद्गल ऋषि को परिवारसहित भूखा रहना पड़ा। उनकी स्त्री एवं पुत्र ने भी उनका साथ दिया। इसके उपरान्त भी उनके मन में किसी भी प्रकार का विकार न आया। दुर्वासा इसी प्रकार प्रत्येक यज्ञ वाले दिन आने लगे और सब-कुछ खाकर जाने लगे। ऐसा उन्होंने छः बार किया, किन्तु कभी उन्होंने मुद्गल ऋषि के मन में कोई विकार न देखा।


इससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि बोले - ‘‘मुने! आपके समान इस संसार में कोई दाता नहीं है। भूख बड़े-बड़ों को हिला देती है, किन्तु आपने उस पर भी विजय प्राप्त कर ली। आपकी ख्याति जगत् में फैल रही है। देवतागण भी ऐसी बातें करते हैं। आपका कल्याण हो।’’


मुद्गल मुनि ने दुर्वासा को प्रणाम किया और वे चले गये। तभी देवताओं का एक दूत विमान सहित उनके पास पहुँचा। उस विमान में दिव्य हंस एवं सारस जुते हुए थे तथा उससे दिव्य सुगंध फैल रही थी।


देवदूत ने मुद्गल मुनि से कहा - ‘‘मुनिवर! आप सिद्ध हो चुके हैं। यह विमान आपको आपके शुभकर्मों के कारण प्राप्त हुआ है। आप इसमें बैठिये।’’


मुद्गल मुनि ने कहा - ‘‘देवदूत! आपके इस निमंत्रण हेतु आपका आभार, किन्तु मुझे यह बताइये कि स्वर्ग में क्या सुख है एवं क्या दोष है?’’


देवदूत बोला - ‘‘धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, द्वेषरहित, शम-दम से सम्पन्न लोग ही यहाँ प्रवेश करते हैं। वहाँ देवता, साध्य, विश्वोदेव, महर्षि याम, धाम, गन्धर्व एवं अप्सरा के अलग-अलग लोक हैं। तैंतीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। सुन्दर-सुन्दर वन-उपवन हैं। वहाँ किसी को भूख-प्यास नहीं लगती। वहाँ कोई कष्ट नहीं होता। शोक करने वाला नहीं है। सभी आनंद में रहते हैं। न बुढ़ापा आता है, न थकावट होती है। ऐसी अनेक बातें हैं, जो स्वर्ग में आपको देखने को मिलेंगी।


इसके ऊपर भी अनेक दिव्यलोक हैं। इनमें सबसे ऊपर ब्रह्मलोक है। अपने शुभ कर्मों से पवित्र ऋषि-मुनि यहाँ आते हैं। वहीं ऋभु नामक देवता समस्त स्वर्गवासी देवता के पूज्य भी रहते हैं। उनकी परा सिद्धि की अवस्था है, जिसे सभी देवगण प्राप्त करना चाहते हैं। आपने दान के माध्यम यह अवसर प्राप्त किया है। आप इसका उपभोग करें।’’


मुद्गल मुनि बोले - ‘‘अब दोष भी बता दें।’’


देवदूत बोला - ‘‘स्वर्ग में अपने किये हुए कर्मों का ही फल भोगा जाता है। नया कर्म नहीं किया जाता। वहाँ का भोग अपनी मूल पूँजी को गँवाकर ही प्राप्त होता है। यही सबसे बड़ा दोष है। तो एक बार कर्म समाप्त हो जाये, तो फिर गिरना ही पड़ता है। ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक हैं, उन सभी में यह भय बना रहता है।’’


मुद्गल बोले - ‘‘यह तो बड़ा दोष है। इनके अतिरिक्त जो निर्दोष लोक है, उसका वर्णन कीजिये।’’


देवदूत बोला - ‘‘ब्रह्मलोक से ऊपर विष्णु का परमधाम है। वह शुद्ध सनातन लोक है, उसे परब्रह्मपद भी कहते हैं। विषयी पुरुष तो वहाँ जा ही नहीं सकते। वहाँ मात्र वही धर्मात्मा पहुँच सकते हैं, जो ममता एवं अहंकार से रहित हों, द्वन्द्वों से परे हों, जितेन्द्रिय हों एवं ध्यानयोग में निष्ठ हों।’’


यह सुनकर मुनि मुद्गल बोले - ‘‘देवदूत! मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। मुझे स्वर्ग का मोह नहीं है। पतन के बाद स्वर्गवासियों के दुःख को समझ सकता हूँ। मैं अब मात्र उस स्थान का अनुसंधान करूँगा, जहाँ जाकर व्यथा एवं शोक से मुक्ति मिल जाये।’’


देवदूत को विदा करने के बाद मुनि पुनः भिक्षावृत्ति से रहने लगे। उसके पश्चात् उन्होंने ज्ञानयोग का आश्रय लिया। ध्यानयोग से वैराग्य तक निष्ठा से धर्म का पालन किया। फिर ध्यान से बल पाकर बोध को प्राप्त किया। इस प्रकार उन्होंने परमसिद्धि प्राप्त कर ली। वे परब्रह्मपद अर्थात् सनातन लोक के अधिकारी बने। 


विश्वजीत 'सपन'

Tuesday, September 25, 2018

महाभारत की लोककथा भाग - 50


महादैत्य धुन्धु

किसी समय में अयोध्या नगरी पर बृहदश्व नामक राजा राज्य करते थे। वे सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु वंश के बड़े प्रतापी राजा थे। उस समय पृथ्वी पर उनके जैसा पराक्रमी राजा कोई न था। उसके पुत्र का नाम कुवलाश्व था, जो सभी विद्याओं में पारंगत और बड़ा बलवान् था। कुवलाश्व जब राज्य सँभालने के योग्य हो गया तो उसके पिता ने उसका राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं तपस्या करने का मन बनाकर वन की ओर जाने लगे। प्रजा ऐसा नहीं चाहती थी। उन्होंने रोकने का प्रयास किया, किन्तु बृहदश्व न माने।


जब वो वन-गमन हेतु तैयार हुए, तभी महर्षि उत्तंक उनकी राजधानी में आये और उन्हें वन जाने से रोकते हुए राजा बृहदश्व से कहा - ‘‘राजन्! आप वन को न जायें। आप पहले हमारी रक्षा करें।’’


राजा ने महर्षि का स्वागत किया और पूछा - ‘‘मुनिवर, हमें बताइये कि आपको किस प्रकार का कष्ट है? मेरे योग्य कोई सेवा तो अवश्य बताइये। ऐसा कौन-सा कार्य है, जिसके लिये मुझे वन-गमन से आप रोकना चाहते हैं?’’


तब महर्षि उत्तंक ने बताया - ‘‘राजन्! तो सुनिये। मेरा आश्रम मरुदेश में है। उस आश्रम के निकट ही रेत से भरा हुआ एक समुद्र है, जिसका नाम उज्जालक सागर है। वहाँ एक बड़ा ही बलवान् और क्रूर महादैत्य रहता है। उसका नाम धुन्धु है। वह मधुकैटभ का पुत्र है। उसने ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया हुआ है, अतः देवता भी उसको मारने में असमर्थ हैं। वह पृथ्वी के भीतर छिपकर रहता है। वर्षभर में मात्र एक बार ही साँस लेता है और जब साँस छोड़ता है, तो सारी धरती डोलने लगती है। रेत का ऊँचा बवंडर उठने लगता है, जिससे सूर्य तक छिप जाता है। अग्नि की लपटें उठने लगती हैं और धुएँ से सारा आकाश भर जाता है। अग्नि की लपटें, चिंगारियाँ और धुएँ उठते रहते हैं। ऐसे में आश्रम में रहना दूभर हो जाता है। जब तक उसका वध नहीं होता, हम कभी भी निर्विघ्न होकर तप नहीं कर पायेंगे। अतः आप उससे हमारी रक्षा कीजिये।’’


राजा ने महर्षि को आश्वस्त किया और बोले - ‘‘ब्रह्मन्! आप चिंतित न हों। मेरा पुत्र कुवलाश्व यह कार्य करेगा। यह पराक्रम एवं तपोबल में धनी है। इसके जैसा पराक्रमी इस भूमण्डल पर कोई नहीं है। यह अवश्य ही इस कार्य को पूर्ण करेगा। इसमें इसके पुत्र भी साथ देंगे। मैंने तो शस्त्रों का त्याग कर दिया है।’’


उत्तंक ने कहा - ‘‘जैसा आप उचित समझें राजन्।’’ ऐसा कहकर महर्षि तपोवन में चले गये। उन्हें नारायण की कही बात स्मरण हो आयी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने कहा था कि बृहदश्व का पुत्र कुवलाश्व ही एक पराक्रमी दैत्य का वध करेगा।


उधर कुवलाश्व अपनी सेना लेकर महर्षि के आश्रम की ओर चल पड़ा। वह अपनी सेना के साथ शीघ्र ही समुद्र तट के उस किनारे पर पहुँच गया, जहाँ वह दैत्य धरती के भीतर सोया हुआ था। उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि रेती को खोदकर उस दैत्य को निकाला जाये। सात दिनों तक निरन्तर खुदाई होने के बाद वह दैत्य दिखाई पड़ा। उसका शरीर अत्यधिक विशाल था और बाहर आते ही ब्रह्माजी के वरदान के कारण देदीप्यमान होकर चमकने लगा। कुवलाश्व की सेना ने उस पर आक्रमण कर दिया। उसे वर प्राप्त था कि देवता, दानव, यक्ष, राक्षस या सर्प से उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी। इसी कारण भगवान् विष्णु ने कुवलाश्व में अपना तेज स्थापित कर दिया, ताकि वह धुन्धु का वध कर सके।


बाणों की वर्षा होने से धुन्धु क्रोधित हो उठा। वह उन अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। उसके बाद वह अपने मुख से संवर्तक अग्नि के समान आग की लपटें उगलने लगा। कुवलाश्व की सेना बड़ी थी, किन्तु कुछ ही देर में उन लपटों में जलकर कुवलाश्व की पूरी सेना भस्म हो गयी। उसने क्रोध से कुवलाश्व को देखा, जैसे उसे वह अभी निगल जायेगा। उसने कुवलाश्व की ओर बढ़ना प्रारंभ किया। कुवलाश्व उससे कदापि भयभीत न था। वह भी उसकी ओर बढ़ा। उसके बाद उसने तपोबल से अपने शरीर से जल की वर्षा की। उस वर्षा ने धुन्धु के मुख से निकलती हुई अग्नि को पी लिया। अग्नि के बुझ जाने पर धुन्धु का बल क्षीण हो गया। तभी आकाशवाणी हुई - ‘यह राजा कुवलाश्व स्वयं अवध्य रहकर धुन्धु का वध करेगा और धुन्धुमार के नाम से विख्यात होगा।’


ऐसी आकाशवाणी होते ही देवताओं ने दुन्दुभियाँ बजा दीं। वे पुष्प की वर्षा करने लगे। चारों दिशाओं में तीव्र हवा चलने लगी। तब धूल को शान्त करने के लिये इन्द्र ने वर्षा प्रारंभ कर दी। इस मध्य कुवलाश्व ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उस दैत्य को मार गिराया। इस कारण से कुवलाश्व धुन्धुमार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने अनेक वर्षों तक निष्कंटक पृथ्वी पर राज्य किया। उसके तीन पुत्र हुए - दृढ़ाश्व, कपिलाश्व एवं चन्द्राश्व। इन तीनों से ही इक्ष्वाकु वंश की परम्परा आगे बढ़ी। 



- विश्वजीत 'सपन'

Saturday, March 3, 2018

महाभारत की लोककथा - भाग 49

‘‘अष्टावक्र का शास्त्रार्थ’’ 
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महाभारत की कथा की 74वीं कड़ी में प्रस्तुत यह लोककथा।
 

यह एक अनूठी कहानी है, जिसमें अष्टावक्र के पिता को बन्दी नामक विद्वान् ने शास्त्रार्थ में पराजित कर उसे जल-समाधि दे दी। अष्टावक्र बन्दी को सबक सिखाना चाहता है। वह राजा जनक के दरबार में जाता है और उसका शास्त्रार्थ बन्दी से होता है। उस शास्त्रार्थ में क्या-क्या हुआ और उसके बाद क्या होता है, इसे विस्तार से पढ़ने के लिये नीचे दिये लिंक को क्लिक करें अथवा चित्र में इस कथा को पढ़ें।

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http://pawanprawah.com/paper.php?news=2858&page=10&date=26-02-2018 



विश्वजीत ‘सपन’